Sanatan Dharma Logo सनातन धर्म का प्रतीक चिन्ह

सनातन धर्म: एक शाश्वत धर्म की अद्भुत विशेषताएं

स्वस्तिक: सर्वाधिक मान्यता प्राप्त प्रतीक

स्वस्तिक, जिसे अक्सर "स्व-स्ति-का" कहा जाता है, निर्विवाद रूप से सनातन धर्म (हिंदू धर्म) से जुड़े सबसे व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त प्रतीकों में से एक है। 
इसकी विशिष्ट उपस्थिति, जिसमें भुजाएँ दक्षिणावर्त और वामावर्त दोनों दिशाओं में बाहर की ओर फैली हुई हैं, ने दुनिया भर का ध्यान आकर्षित किया है।



अर्थ और महत्व:

सनातन धर्म के संदर्भ में स्वस्तिक का गहरा अर्थ है। इसका नाम दो संस्कृत शब्दों से लिया गया है: "सु" का अर्थ है "अच्छा" या "शुभ," और "अस्ति" का अर्थ 
है "होना।" इस प्रकार, स्वस्तिक की व्याख्या कल्याण, समृद्धि और शुभता के प्रतीक के रूप में की जा सकती है। यह सृजन, संरक्षण और विनाश के चक्र का 
प्रतीक है, जो हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान में एक मौलिक अवधारणा है।

इतिहास:

स्वस्तिक का इतिहास व्यापक है और हजारों साल पुराना है। इसकी जड़ें प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता में पाई जाती हैं, जहां इसका उपयोग मिट्टी के बर्तनों, कला 
और कलाकृतियों में एक सामान्य रूपांकन के रूप में किया जाता था। इस प्राचीन संदर्भ में, स्वस्तिक को सूर्य के प्रतीक के रूप में देखा जाता था, जिसकी 
भुजाएँ सूर्य की किरणों का प्रतिनिधित्व करती थीं।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, स्वस्तिक अपने प्रतीकवाद और अर्थ में विकसित होता रहा। इसने वैदिक ग्रंथों में अपना स्थान पाया, जहां यह विभिन्न देवताओं,
विशेष रूप से भगवान विष्णु से जुड़ा हुआ हो गया। इस संदर्भ में, यह ब्रह्मांड में स्थिरता और व्यवस्था लाने के लिए विष्णु की दिव्य शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है।



विभिन्न संस्कृतियों में उपयोग:

जबकि स्वस्तिक आमतौर पर सनातन धर्म से जुड़ा हुआ है, इसका उपयोग पूरे इतिहास में विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों में भी किया गया है। उदाहरण के लिए,
प्राचीन बौद्ध धर्म में, यह बुद्ध के नक्शेकदम का प्रतीक है और उनकी शिक्षाओं का प्रतीक माना जाता है। जैन धर्म में, यह अस्तित्व की चार अवस्थाओं में, 
जन्म, जीवन,मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र का प्रतिनिधित्व करता है।

स्वस्तिक का उपयोग भारतीय उपमहाद्वीप तक ही सीमित नहीं है। यह मूल अमेरिकी, यूरोपीय और यहां तक ​​कि अफ्रीकी संस्कृतियों में भी दिखाई देता है,
जो अक्सर अच्छे भाग्य, जीवन और सकारात्मक ऊर्जा के विचारों का प्रतीक है। 
निष्कर्षतः

 स्वस्तिक सनातन धर्म की स्थायी प्रकृति और मानव सभ्यता के विभिन्न पहलुओं पर इसके गहरे प्रभाव का एक प्रमाण है। अपनी सौंदर्यवादी अपील से परे, 
यह कल्याण, समृद्धि और शुभता के उन कालातीत सिद्धांतों की याद दिलाता है जिन्होंने सहस्राब्दियों से भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को
समृद्ध किया है।

स्वास्तिक की हर रेखा का है विशेष महत्व

स्वास्तिक में चार प्रकार की रेखाएं होती हैं, जिनका आकार एक समान होता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं। आम लोगों का मानना है कि यह रेखाएं चार दिशाओं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैं। इन चार रेखाओं की चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चारलोक और चार देवों यानी कि भगवान  ब्रह्मा, विष्णु, महेश (भगवान शिव) और गणेश से तुलना की गई है।

भगवान विष्णु की नाभि माना जाता है बिंदु

स्वास्तिक की चार रेखाओं को जोडऩे के बाद मध्य में बने बिंदु को भी विभिन्न मान्यताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है। मान्यता है कि यदि स्वास्तिक की चार रेखाओं को भगवान

ब्रह्मा के चार सिरों के समान माना गया है, तो फलस्वरूप मध्य में मौजूद बिंदु भगवान विष्णु की नाभि है, जिसमें से भगवान ब्रह्मा प्रकट होते हैं। इसके अलावा यह मध्य भाग संसार

के एक धुर से शुरू होने की ओर भी इशारा करता है।

बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं, स्वास्तिक भगवान

बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।

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