7 चक्र- 7 Chakra कौन से हैं व उन्हें जागृत कैसे करे

हमारे शरीर में मौजूद सात चक्र कौन से हैं व उन्हें जागृत करने से कौन सी सिद्धियां प्राप्त होती हैं?

महर्षि व्यास ने महाभारत लिखते लिखते एक अत्यन्त गुह्य रहस्य को प्रकट कर दिया है वे लिखते हैं-

गुह्य व्रत्याँ तदिदं ब्रवीमि।

नहि मनुष्यात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्।’

एक गुप्त रहस्य बताता हूँ। मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठतर इस संसार में और कुछ नहीं है।

 

 

7 चक्र
7 चक्र

जिन देवताओं से वह तरह तरह के वरदान पाने की मनुहार करता है वे वस्तुतः उसी की श्रद्धा एवं विश्वास के छैनी हथौड़े से गढ़े हुए मानस पुत्र हैं। ‘भावो हि विद्यते देव’ की उक्ति से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पत्थर के टुकड़े को देवता के समतुल्य समर्थ बना देने वाला चमत्कार भावना के आरोपण से ही सम्भव होता है। उसे उठा लिया जाय तो देव प्रतिमा में पत्थर के अथवा धातु खण्ड के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मनुष्य देवताओं को गढ़ता है और स्वयं भी देवता बनता है- भजन्ते विश्वे देवत्वं नामऋर्त सर्पन्तो अमृत मेवैः। -ऋग्वेद

ईश्वर का अविनाशी अंश होने के कारण आत्मा के देव मन्दिर-इसी शरीर में समस्त देवताओं की बीज माताएँ विद्यमान हैं। अंग प्रत्यंगों में उच्चस्तरीय श्रेष्ठता विद्यमान है। उपेक्षा एवं अवज्ञा के कारण वे मूर्छित स्थिति में मृतक तुल्य पड़े हैं। उन्हें जगाने का प्रयास योग और तप द्वारा किया जाता है। अपने भीतर देवसत्ता के विद्यमान होने का प्रसंग इस प्रकार आया है-

ता एता देवताः सृष्टा अस्मिन् महर्त्यणवे प्रापतंस्तमशनायापिपासाभ्यामन्बवार्जत् ता एनमब्रु वन्ना यतनै नः प्रजानीहि यस्मिन् प्रतिष्ठता अन्नमदा मेति॥1॥

ताभ्यो गामानयता अब्रु वत्र वै नोउयमलमिति ताभ्योअश्वमानयत्ता अब्रु वत्र वै नोअयमलमिति॥2॥

ताभ्यः पुरुषमानयता अब्रु वन् सुकृतं बतेति। सुरुषोबाव सकृतम्। ता अब्रवीद्यथायतनं प्रविशतेति॥3॥

अग्निर्वाग्भूत्वाँ मुखं प्राविशद्वायुः प्राणों भूत्वा नासिके प्राविशंदादित्यश्चक्षूर्भू त्वाक्षिणी प्राविशद्दिशः श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशंश्चंद्रमा मनो भूत्वा ह्नदयं प्राविशन्मृत्युरपाना भूत्वा नाभि प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशन्-एतरेय 2।1 से 4

परमात्मा ने देवताओं को इस संसार में भेजा। उनमें भूख, प्यास और अनुभूति उत्पन्न की। देवताओं ने परमात्मा से कहा- हमारे लिए शरीर निर्माण करो। जिसमें रहकर हम अपनी आवश्यकताएँ पूर्ण करें। परमात्मा ने उन्हें गौ, अश्व आदि के शरीर दिखाये, जिसे उन्होंने अनुपयुक्त बताया। तब परमात्मा ने उन्हें मनुष्य देह दिखायी। देवताओं ने कहा-हाँ यही बहुत ठीक और सुन्दर है। तब परमात्मा ने कहा-अपने अपने उपयुक्त स्थानों में घुल जाओ । तब अग्नि वाणी बनकर मुख में, वायु प्राण बनकर नासिका में, सूर्य ज्योती बनकर नेत्रों में, दिशाएँ कानों में, वनस्पति औषधि बनकर त्वचा में, चन्द्रमा मन बनकर हृदय में, स्वयं अपान बनकर नाभि में और वरुण रेतस् बनकर जननेन्द्रियों में प्रविष्ट हुआ।

पुरुषों वान गौतमाग्निस्तिस्य वागेव समित्प्राणी धूमो जिहार्चिश्वक्षुरड्ऱाराः श्रोत्रं विस्फुलिंगा।

तस्मिन्नेतस्मित्रग्नो देवा अत्रं जुहति तस्या आहुते रेतः सम्भवति।

यह पुरुष की अग्नि है। वाणी समिधा है। प्राण धुँआ है। जिव्हा ज्वाला है। नेत्र अंगार है। कान चिनगारियाँ। इस अग्नि में देवगण हवन करते हैं और उससे पराक्रम उत्पन्न होता है।

देहेडस्मिन् वर्तते मेरुःसप्तदीप सन्वितः।

सरितः सागरःशैलाःक्षेत्राणि क्षेत्रपालकः॥

ऋषियोँ मुनयः सर्वे नक्षत्राणि प्रहास्तथा।

पण्यतीर्थानि पोठानि वर्तन्ते पीठ देवताः॥

इसी शरीर में सप्त दीपों सहित सुमेरु पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पर्वत शिखर, क्षेत्र, क्षेत्रपाल, ऋषि-मुनि समस्त नक्षत्र-ग्रह पुण्य तीर्थ, पीठ और उन पीठों के देवता सभी विद्यमान हैं।

मानवी संकल्प शक्ति की क्षमता असीम है। उसको जागृत करना और सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त कर रखना सम्भव हो सके तो कुछ भी बन सकना और कुछ भी कर सकना सम्भव हो सकता है।

फलं ददाति कालेन तस्य मस्य तथा तथा।

तपोवा देवता वापि भूत्वा स्वैव चिदन्यथा।

फलं ददात्यथ स्वैरं नभः फल निपातवत् -योगवासिष्ठ

जीव अपनी इच्छा से ही देवता, तपस्वी बनता रहता है। प्रगति और अवनति का आधार मनुष्य का अपना कर्तृत्व ही है।

यह विधि की विडम्बना ही है कि आँख आदि इन्द्रियों के छिद्र बाहर की ओर बनाये। वे बाहर का तो बहुत कुछ देखती है, पर आन्तरिक सम्पदा को समझने उसका सदुपयोग करने से वंचित ही रह जाती है। हमारी बुद्धि जीवन के स्वरूप, लक्ष्य एवं उपयोग को जानने में असमर्थ रहती है।

पराञिच खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्तस्माद्

पराड्पश्यति नान्तरात्मन्।

कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मान मैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्॥

विधाता ने छेदों को बाहर की ओर छेदा (अर्थात् इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया) अतएव मनुष्य बाहर ही देखता है। अन्तर को नहीं देखता। अमृत की आकांक्षा करने वाला दूरदर्शी बिरला मनुष्य ही अन्दर की ओर देखता है।

गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में सप्त चक्रों का जागरण प्रमुख है। यह सप्त चक्र और पंचकोश परस्पर सम्बद्ध हैं। दोनों की साधना एक साथ ही सम्पन्न होती है। इसी में देव-साधना-ऋषि उपासना, समग्र उत्कर्ष जीवन-लक्ष्य सर्वतोमुखी विकास उल्लास के समस्त तत्वों का समावेश है। कहा गया है-

मूलादि ब्रह्म रंध्रान्ता गीयते मननात् यतः।

मननात् त्राति षट्चक्र गायत्री तेन कथ्यते-तन्त्र कौमुदी

मूलाधार से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक विस्तृत षट्चक्र को जिसके आह्वान से जागरण होता है उसे गायत्री कहते हैं।

आत्मसत्ता में सन्निहित विश्व की समस्त विभूतियों को यदि खोजा और जगाया जा सके तो जीवात्मा को देवात्मा एवं परमात्मा बनने का अवसर मिल सकता है। इस अन्वेषण प्रयास को ब्रह्म विद्या और जागरण प्रक्रिया को ब्रह्मतेज सम्पादन कहते हैं। इस सन्दर्भ में सप्तऋषियों को जीवन्त करने और उनके ब्रह्म-बल से उच्चकोटि का लाभ उठाने की प्रक्रिया चक्रबेधन’ के रूप में समझी जा सकती है।

सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे,

सप्त रक्षन्ति सर्व अप्रमादम्-यजु

शरीर में सप्त ऋषि निवास करते हैं। वे सतर्कतापूर्वक निरन्तर उसकी रक्षा करते हैं।

परमात्मा अध्यात्मवेत्ता चेतना के सात शरीर मानते हैं। एक प्रत्यक्ष छः अप्रत्यक्ष।

(1) भौतिक शरीर को वे फिजीकल बॉडी कहते हैं। (2) सूक्ष्म शरीर एस्ट्रल बॉडी (3) मनस् शरीर – मेन्टल बॉडी (4) आत्म शरीर स्प्रिचुअल बॉडी (5) ब्रह्म शरीर- कास्मिक बॉडी (6) निर्वाण शरीर इसे वे शरीर कहते हुए भी आत्मसत्ता कहते हैं और शरीर न कहकर वीइंग एण्ड नान वीइंग की संज्ञा देते हैं। यह अनिवर्चनीय जैसा शब्द है।

(1) मूलाधार (2) स्वाधिष्ठान (3) मणिपुर (4) अनाहत (5) विशुद्ध (6) आज्ञाचक्र यह षट्चक्र वर्ग में आते हैं। सातवाँ सहस्रार इनका अधिपति एक सूत्र संचालक है। मानवी काया में अवस्थित यही परम तेजस्वी सप्त ऋषि है । जिनकी पीठ पर- जिनके समर्थन में-सात ऋषि होंगे उन्हें किसी प्रकार का अभाव अनुभव न होगा। निद्रित स्थिति में तो मनुष्य भी मृत तुल्य पड़ा रहता है। ऋषियों का अस्तित्व आत्मसत्ता के अंतर्गत होते हुए भी यदि वे प्रस्तुत स्थिति में पड़े हैं तो उनका समुचित लाभ मिल सकना सम्भव न होगा।

आत्मसूर्य के सप्त अश्व प्रमुख चेतना केन्द्रों के रूप में वर्णन किये गये है- (1) प्राण (2) ऋषि (3) जिव्हा (4) त्वचा (5) कान (6) मन (7) बुद्धि इन सातों को अश्व संज्ञा दी गई है।

दिव्य जीव सत्ता में इन सातों का वर्णन इस प्रकार मिलता है (1) देव (2) ऋषि (3) गंधर्व (4) पत्रक (5) अप्सरा (6) यक्ष (7) राक्षस। वैदिक देवताओं में इन्हीं का दूसरे रूप में वर्णन है- (1) प्रजापति (2) अर्यमा (3) पूषा (4) त्वष्टा (5) वरुण (6) इन्द्र (7) मित्र। छंद शास्त्र की दृष्टि से इनका उल्लेख जिन सात छन्दों में किया गया है वे (1) गायत्री (2) उष्णिक् (3) अनुष्टुप् (4) वृहती (5) पंक्ति (6) त्रष्टुप (7) जगती है।

गान विद्या के सप्त स्वर प्रसिद्ध है- सा, रे, ग, म, प, ध, नि के नाम से इन्हें संगीत शास्त्र के आरम्भिक छात्र भी जानते हैं। सूर्य की सात किरणें (1) बैगनी (2) जामुनी (3) नीले (4) हरे (5) पीले (6) नारंगी (7) लाल रंग की है। इन्हीं रंग के प्रभाव से पदार्थों और प्राणियों में तरह-तरह के उभार, उतार चढ़ाव आते रहते हैं।

आयुर्वेद के अनुसार अपने प्रत्यक्ष शरीर में सप्त धातुएँ है।- (1) रस (2) रक्त (3) माँस (4) मज्जा (5) अस्थि (6) भेद (7) शुक्र। इन्हीं के सहारे काया का क्रिया-कलाप चलता है। सूक्ष्म शरीर का ढाँचा भी सात आधारों पर ही खड़ा है। (1) पाँच तत्व (2) पाँच प्राण (3) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (4) पाँच कर्मेन्द्रियाँ (5) पाँच तन्मात्राएँ (6) अन्तः करण चतुष्टय (7) आकांक्षा संस्कार ।

7 चक्र
7 चक्र

 

 

स्थूल शरीर के आधारों को प्रत्यक्ष आँखों से देखा जा सकता है। सूक्ष्म शरीर के आधार भी सूक्ष्म होते हैं। अस्तु वे दृष्टिगोचर तो नहीं होते, पर अस्तित्व उन सब का बना रहता है। भाप बनकर आकाश में उड़ जाने पर भी पदार्थ बना ही रहता है, पर उसका अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं होता। सूक्ष्म शरीर की सत्ता भूत-प्रेतों के रूप मे, स्वप्न में, छाया पुरुष में, स्वर्ग-नरक भाजन में स्थूल शरीरधारियों की तरह ही काम करती है, पर उसका अस्तित्व स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर नहीं होता। दिव्यात्माएँ भी ऐसा ही सुहुम कलेवर धारण करके इतना काम करती है जो स्थूल शरीर की तुलना में अत्यधिक होता है।

षट्चक्रों का नाम भ्रामक है। वस्तुतः उन्हें सप्तचक्र ही कहना चाहिए। सहस्रार को इन चक्र शृंखला से अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक चक्र भी सात आधारों से बना है। उनके स्वरूप निर्धारणों की जो व्याख्या विवेचना है उसमें प्रत्येक के सात-सात विवरण दिये गये है- (1) तत्व-बीज (2) वाहन (3) अधिदेवता (4) दल (5) यन्त्र (6) शब्द (7) रंग। इन्हीं विशेषताओं की भिन्नता से उनके अलग-अलग विभेद किये गये है। अन्यथा बाहर से तो उनकी आकृति एक जैसी ही है। उनकी क्षमताओं, विशेषताओं और प्रतिक्रियाओं का विवरण इन्हीं सात संकेतों के रूप में समझा जा सकता है।

शरीर एक समूचा ब्रह्माण्ड है। जो कुछ इस विस्तृत ब्रह्माण्ड में है उसे बीज रूप में मानवी पिण्ड में सँजो दिया गया है। साधना द्वारा इन बीजों को अंकुरित और पल्लवित किया जाता है। ब्रह्माण्ड और पिण्ड की सत्ता एक जैसी बताते हुए कहा गया है।

ब्रह्माण्ड संज्ञके देहे यथा देहं व्यवस्थितः -शिव संहिता

यह शरीर ब्रह्माण्ड संज्ञक है। जो ब्रह्माण्ड में है वही इस शरीर में भी मौजूद है।

नदी, पर्वत, समुद्र, द्वीप आदि भी सात सात ही गिनाये गये है। भूगोल के हिसाब से इनकी संगति नहीं बैठती। संसार में हजारों नदियाँ हैं इसी प्रकार पर्वत भी सैकड़ों हैं। पृथ्वी पर महाद्वीप पाँच हैं। छोटे द्वीपों की संख्या तो लाखों तक पहुँचेगी। समुद्र भी सात कहाँ है। इस प्रकार भौगोलिक गणना के आधार पर यह ब्रह्माण्ड विवरण सही नहीं बैठता। किन्तु पिण्ड ब्रह्माण्ड की प्रमुख शक्तियों को इन रूपकों के माध्यम से समझाने वाले अलंकारित संकेत का रहस्य समझा जा सके तो यह सभी सप्तक सही बैठते हैं।

सात पर्वत यही हैं- (1) बिद्रुम (2) हिमिशैल (3) घुतिमान (4) पुष्पवान (5) कुशेशय (6) हरिशैल (7) मन्दराचल।

सात नदियों के नाम हैं- (1) जलधर (2) टैबत (3) श्यामक (4) उद्रक (5) अम्बिकेय (6) रभ्य (7) केशरी।

सात चक्रों की सप्त अग्नियाँ तथा सात सोम संस्थाओं के रूप में भी वर्णन हुआ है। सोम संस्थाओं के नाम ब्रह्माण्ड ग्रन्थों में इस प्रकार गिनाये गये है- (1) आत्माग्नि स्टोम (2) उष्टवक्य (3) थोडसी (4) वाजपेयक (5) अति रात (6) आप्त (7) याम।

अग्नि पुराण में सात चक्र यज्ञ एवं सात हविश यज्ञों का वर्णन है। चक्र यज्ञ हैं (1) पुरोष्टक (2) पार्यण (3) श्रावणी (4) अग्रहायणी (5) चैत्र (6) अश्व (7) युजी

हविश यज्ञ भी सात है- (1) अग्न्याधेय (2) अग्निहोत्र (3) दर्श (4) पौर्णमास (5) चातुर्मास्य (6) आग्रहायण (7) निरुढ।

सात अग्नियाँ है- (1) ब्रह्माग्नि (2) आतग्नि (3) योगाग्नि (4) कालाग्नि (5) सूर्याग्नि (6) वैश्वानर (7) आतप।

मुण्डक उपनिषद् के अनुसार देव की सात जिह्वाएँ है।- (1) काली (2) कराली (3) मनोजबा (4) लोहिता (5) धूम्रवर्णा (6) स्फुल्लिगिनी (7) विश्वरुचि।

सात समुद्रों और सात द्वीपों के नाम मार्कण्डेय पुराण में इस प्रकार गिनाये गये हैं।

समुद्र- (1) लवण सागर (2) इक्षुसागर (3) सुरा सागर (4) दुग्ध सागर (5) दधि सागर (6) धूत सागर (7) जल सागर ।

द्वीप- (1) जम्बू द्वीप (2) प्लक्ष द्वीप (3) शाल्मलि द्वीप (4) कुश द्वीप (5) क्रौच द्वीप (6) शाक द्वीप (7) पुष्कर द्वीप।

इन सभी प्रतिपादनों में यह संकेत है कि हर स्तर की क्षमता बीज रूप में अपने भीतर विद्यमान है यदि उन्हें जागृत करने का प्रयत्न किया जाय तो व्यक्ति उच्चस्तरीय स्थिति तक निरन्तर बढ़ता चल सकता है और प्रगति के उच्चतम शिखर तक पहुँच सकता है। बीज का अस्तित्व और फल का परिणाम सुनिश्चित है। आवश्यकता उस कृषि कर्म की-बागवानी की रीति नीति जानने अपनाने की है जिसे अध्यात्म की भाषा में साधना कहते हैं।

प्राणायाम मन्त्र में गायत्री के साथ सात व्याहृतियों का प्रयोग होता है। भूः भुवः स्वः महः जनम् तपम् सत्यम्। यह सात व्याहृतियाँ है। इन्हें सात ऋषि एवं सात लोक भी कहा गया है।

अग्नि पुराण में सात ऋषियों के नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं।

वशिष्ठः काश्योडतथात्रिर्जमदग्निः स गौतमः विश्वामित्र भरद्वाजो मुनयः सप्त साम्प्रतम्।

(1) वशिष्ठ (2) काश्यप् (3) अत्री (4) जमदग्नि (5) गौतम (6) विश्वामित्र (7) भारद्वाज

इन सातों की सत्ता सप्त चक्रों में विद्यमान है। इन सातों की शक्ति इन्द्रियों के रूप में भी दृष्टिगोचर होती है।

प्राणः वा ऋषिः । इमौ एव गौतम भरद्वाजौ।

अयमेव गौतमः अयं भारद्वाज ।

इमौ एव विश्वामित्र जमदग्नि।

अयमेव विश्वामित्रः अयं जमदग्निः।

इमौ एव वशिष्ठ कश्यप अयमेव वशिष्ठः अयं कश्यपः। वागेवात्रिः-श्रुति

सात प्राण ही सात ऋषि हैं। दो कान गौतम और भारद्वाज हैं दो आँखें विश्वामित्र और जमदग्नि हैं। दो नासिका छिद्र वशिष्ठ और काश्यप् हैं। वाक् अत्रि हैं।

सात लोक आकाश में ढूँढ़ना व्यर्थ है। वे किसी ग्रह नक्षत्र के रूप में नहीं हैं।, वरन् आत्म सत्ता में सप्त चक्रों के रूप में ही उनका अस्तित्व है। कहा गया है।

मूलाधारे तु भूलोके स्वाधिष्ठाने भुव स्ततः स्वर्गलोके नाभि देशे च हृदयं तु महस्तथा। जन लोके कंठ देशे, लोक ललाटके। सत्य लोक महारन्ध्रे इति लोका पृथक् पृथक्। -महायोग विज्ञान

(1) भू लोक मूलाधार में (2) भुवः लोक स्वाधिष्ठान में (3) स्वः लोक नाभि स्थान में (4) महः लोक हृदय में (5) जल लोक कंठ में (6) तप लोक ललाट में (7) सत्य लोक ब्रह्मरंध्र में विद्यमान हैं जहाँ स्थान मात्र गिना दिये गये है वहाँ उन स्थानों में अवस्थित चक्रों का ही संकेत समझा जाना चाहिए।

उपनिषद् कार ने मानवी काया को ‘छः अरे’ एवं ‘सात चक्र’ लगा हुआ विलक्षण रथ कहा है- यह षट् चक्रों को सात चक्रों का ही संकेत है।

“ऊथेमे अन्य उपरे विलक्षणं सप्त चक्रे शब्दर आहुरर्पितम।

अन्य लोक उस विलक्षण को सात चक्र और दो अरों वाला कहते हैं।

पद्य पुराण में भागवत् माहात्म्य वर्णन सन्दर्भ में धुन्धकारी प्रेत की मोक्ष उस कथा श्रवण के फल स्वरूप होने का उल्लेख है। यह प्रेत बाँस की गाठों को फोड़ता हुआ नीचे से ऊपर चला था और गाठें तोड़कर प्रेत योनि से छूटा तथा परम पद का अधिकारी बना था। अध्याय 5 श्लोक 64 में यह बाँसों की गाँठ भेधे जाने का रहस्योद्घाटन करते हुए इसे यौगिक ग्रन्थि भेद बताया है। कहा गया है।

जडस्य शुष्क वंशस्य यत्र ग्रन्थि विभेदनम्।

चित्रं किमु तदा चित्त ग्रन्थिभेदः कथा श्रवात्॥

इसमें सूखे और जड़ बाँस की गाठें फटने का तात्पर्य चित की ग्रन्थियाँ खुलना बताया गया है।

भागवत् पुराण के स्कन्ध 2 अध्याय 2 के 19,2,21 श्लोकों में महर्षि शुक्राचार्य ने विहंगम मार्ग से ब्रह्मनिष्ठ योगियों के प्राण त्याग का विधान बताया है। इस में षट्चक्र वेधन विधान की ही प्रक्रिया है। छहों चक्रों का वेधन करते हुए अन्त में सहस्रार चक्र में प्राण को लय करते हुए प्राण त्याग करने की विधि समझाई गई है।

यह सप्त ऋषि जिस पर अनुग्रह करते हैं उन्हें सद्गुणों की सात विभूतियाँ प्रदान करते हैं। स्पष्ट है कि सद्गुण ही वे देव अनुग्रह हैं जिनके मूल्य पर भौतिक और आत्मिक, सम्पदाएँ सफलताएँ खरीदी जाती हैं। यह भ्रान्तियाँ निरस्त की जानी चाहिए कि उपासना के फलस्वरूप सीधी सम्पदाएँ मिलती हैं। सच्ची साधना के फलस्वरूप अन्तरंग में उत्कृष्टता उभरती है और सज्जनोचित सद्भावों का विस्तार होता है। बहिरंग के सत्प्रवृत्तियाँ सक्रिय होती हैं और क्रिया-कलापों में महामानवों जैसी प्रतिभा व्यवस्था एवं शालीनता की मात्रा बढ़ती है। जहाँ आत्मविकास का यह स्वरूप दृष्टिगोचर हो समझना चाहिए कि यहाँ सच्ची साधना की गई और उसके फलस्वरूप व्यक्तित्व निखरने के स्वरूप ही भौतिक और आत्मिक सफलताओं के-ऋद्धि-सिद्धि के रूप में वे प्रतिफल प्राप्त होते हैं जिनका माहात्म्य साधनाओं की सफलता के रूप में वर्णन किया गया है।

न देवा दण्ड मादाय रक्षनित पशुपाल वत्।

यस्तु रक्षितुमिच्छन्ति बुद्धया संयोजयन्तितम्-महाभारत

ग्वाला जिस प्रकार लाठी लेकर पशुओं की रक्षा करते हैं उस तरह देवता किसी की रक्षा नहीं करते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसकी बुद्धि को सन्मार्ग पर नियोजित कर देते हैं।

सप्त ऋषियों का अनुग्रह सात लोकों, सात द्वीपों, सात समुद्रों, सात पर्वतों, सात नदियों का स्वामित्व उपलब्ध होने के रूप में मिलता है। तात्पर्य यह हुआ कि ब्रह्माण्ड सत्ता को प्रतीक आत्मसत्ता पर अपना अधिकार आधिपत्य मिलता है। अपनी क्षमताओं को समझने, उन्हें उभारने और उपभोग करने का अर्थ कौशल प्राप्त होता है। जिसे यह सफलता मिल सकी समझाना चाहिए उसे ब्रह्माण्ड का आधिपत्य मिल गया।

सात यज्ञ, सात अग्नि, सात सोम आदि की उपासना से जो प्रतिफल मिलने बताये गये हैं उन्हें भी सात ऋषियों के वरदान समझना चाहिए जो अपने आत्मसत्ता के रूप में हिमालय में निरन्तर निवास और तप करते हैं। इन्हीं शक्ति धाराओं को साधना विज्ञान में सात चक्र कहा गया है, प्रत्येक चक्र प्रत्येक ऋषि का एक एक वरदान एक एक सद्गुण के रूप में प्राप्त होता है। वे ही ऋद्धि-सिद्धियों साथ में जीवन को देवमय बनाते हैं और स्वर्गीय उपलब्धियों से सुसम्पन्न करते हैं।

सात चक्रों के सात सद्गुण इस प्रकार है- (1) मूलाधार (2) स्वाधिष्ठान (काश्प्य) (3) मणिपुर (अत्रि) (4) अनाहत (जमदग्नि (5) विशुद्ध (गौतम) (6) आज्ञाचक्र (विश्वामित्र) (7) सहस्रार (भारद्वाज) उल्लास।

यों पौराणिक गाथाओं में ऋषि, व्यक्ति-विशेष थे। महामानवों के रूप में योग और तप में निरत-स्व पर कल्याण में संलग्न जीवनयापन करते हुए उनका वर्णन किया गया है। परमात्म विज्ञान में ऋषि तत्व जागृत एवं प्रखर प्राणसत्ता को कहा गया है। वे सूर्य के समान एक कहे जा सकते हैं। अथवा सप्त किरणों के रूप में उनके सात नाम दिये जा सकते हैं और सुविधा के लिए सात वर्गों में विभाजित करके सात व्याख्याएँ की जा सकती हैं। सृष्टि के आदि में जब जीवसत्ता प्रकट हुई तो उनका स्वरूप ‘ऋषि प्राण्’ के रूप में था। यह जीवात्मा का शुद्ध स्वरूप है। उसी स्थिति में पहुँचने पर आत्मा को देवात्मा एवं परमात्मा के रूप में परिष्कृत बनने का अवसर मिलता है। शत पथ में इस रहस्य का इस प्रकार उल्लेख हुआ है-

असद्वा इदमग्न आसीत् तदाहुः

कि तदसदासी दित्यृष्यों,

वा व ते ड में उ सदासीतु तदाहुः

के ते ऋषय इति, प्राणा बा ऋषय -शतपथ

पहले सृष्टि से पूर्व में यह असत् था। तब कहा- यह असत् क्या था? उत्तर- वे ऋषि ही थे। वे सृष्टि से पूर्व में असत थे। तब कहा- वे ऋषि क्या थे? प्राण ही ऋषि थे।

पद्ब्रहम च तपश्च सप्तऋषय उपजीवन्ति ब्रह्म वर्चस्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद-अथर्व

पद्ब्रहम च तपश्च सप्तऋषय उपजीवन्ति ब्रह्म वर्चस्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद-अथर्व

योग के विभूतिपाद में अ‍ष्टसिद्धि के अलावा अन्य अनेक प्रकार की सिद्धियों का वर्णन मिलता है। सभी सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए चक्रों को जाग्रत करना चाहिए। मनुष्य शरीर स्थित कुंडलिनी शक्ति में जो चक्र स्थित होते हैं उनकी संख्या कहीं छ: तो कहीं सात बताई गई है।

समय-समय पर चक्रों वाले स्थान पर ध्यान दिया जाए तो मानसिक स्वास्थ्य और सुदृढ़ता के साथ ही सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं तो जानते है चक्रों को जाग्रत करने की विधि और किस चक्र से प्राप्त होती है कौन सी सिद्धि।

1। मूलाधार चक्र : यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह ‘आधार चक्र’ है। 99।9 लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।

मंत्र : लं

चक्र जगाने की विधि : मनुष्य तब तक पशुवत है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है इसीलिए भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्‍यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।

प्रभाव : इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतर वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।

2। स्वाधिष्ठान चक्र- यह वह चक्र है, जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है जिसकी छ: पंखुरियां हैं। अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है तो आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीत हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।

मंत्र : वं

कैसे जाग्रत करें : जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।

प्रभाव : इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हो तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।

3। मणिपुर चक्र : नाभि के मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत मणिपुर नामक तीसरा चक्र है, जो दस दल कमल पंखुरियों से युक्त है। जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है उसे काम करने की धुन-सी रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।

मंत्र : रं

कैसे जाग्रत करें : आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।

प्रभाव : इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं। आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।

4। अनाहत चक्र- हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही अनाहत चक्र है। अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं। आप चित्रकार, कवि, कहानीकार, इंजीनियर आदि हो सकते हैं।

मंत्र : यं

कैसे जाग्रत करें : हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और सुषुम्ना इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।

प्रभाव : इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है। इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान स्वत: ही प्रकट होने लगता है।

व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।

5। विशुद्ध चक्र- कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां विशुद्ध चक्र है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। सामान्यतौर पर यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास एकत्रित है तो आप अति शक्तिशाली होंगे।

मंत्र : हं

कैसे जाग्रत करें : कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : इसके जाग्रत होने कर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।

6। आज्ञाचक्र : भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में आज्ञा चक्र है। सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां ज्यादा सक्रिय है तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमाग का बन जाता है लेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन रहता है। इस बौद्धिक सिद्धि कहते हैं।

मंत्र : ऊं

कैसे जाग्रत करें : भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं। इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से ये सभी शक्तियां जाग पड़ती हैं और व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।

7। सहस्रार चक्र : सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है अर्थात जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम, नियम का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे व्यक्ति को संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब नहीं रहता है।

कैसे जाग्रत करें : मूलाधार से होते हुए ही सहस्रार तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह चक्र जाग्रत हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।

प्रभाव : शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही मोक्ष का द्वार है।

चक्र संस्थान के जागरण के फलस्वरूप मिलने वाली षट् सम्पत्तियों का वर्णन मिलता है। इन्हें आध्यात्मिक उपलब्धियां भी कह सकते हैं।

षट् सम्पत्ति यह है—

(1) शम (2) दम (3) उपरति (4) तितीक्षा (5) श्रद्धा (6) समाधान।

शम—अर्थात् शान्ति उद्वेगों का शमन। दम-इन्द्रियों का दमन करने की क्षमता। उपरति—दुष्टता से घृणा। तितीक्षा—कष्टों का धैर्यपूर्वक सहना। श्रद्धा—सन्मार्ग में प्रगाढ़ निष्ठा, विश्वास और भावना का समन्वय। समाधान—संशयों और लालसाओं से छुटकारा।

यह गुण, कर्म, स्वभाव की विशेषताएं हैं। उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व से मनुष्य ऊंचा उठता है और ब्रह्म परायण व्यक्तियों को मिलने वाले आन्तरिक सन्तोष, उल्लास और बाह्य सम्मान, सहयोग का अधिकारी बनता है।

इसके अतिरिक्त आत्मिक प्रगति के भौतिक लाभ भी कितने ही हैं। जिन्हें सिद्धियों के नाम से पुकारा गया है। आत्मिक सफलताओं के सम्पत्ति एवं विभूति दो नाम हैं। भौतिक प्रगति को समृद्धि एवं सिद्धि के नाम से सम्बोधित किया जाता है। दोनों के सम्मिलित परिणाम को अतीन्द्रिय क्षमता विकास के रूप में देखा जा सकता है।

श्री आद्य शंकराचार्य ने आठ सिद्धियां यह गिनाई हैं—(1) जन्म सिद्धि (2) शब्द ज्ञान सिद्धि (3) शास्त्रज्ञान सिद्धि (4) आधिदैविक ताप सहन शक्ति (5) आध्यात्मिक ताप सहन शक्ति (6) आधिभौतिक ताप सहन शक्ति (7) विज्ञान सिद्धि (8) विद्या शक्ति।

जन्म सिद्धि का अर्थ है पूर्व जन्मों की स्थिति का आभास पूर्व जन्मों के सम्बन्धियों के प्रति सहज आकर्षण और उनके साथ अपने पूर्व सम्बन्धों की जानकारी।

शब्द सिद्धि का अर्थ है—शब्दों के साथ जुड़ी हुई भावना का आभास। शब्दों की शक्ति बड़ी सीमित है और उससे कुछ का कुछ—उलटा-सीधा—अप्रासंगिक अर्थ भी निकल सकता है। कहने वाले की भावना का सही अनुमान वही लगा सकता है जिसका अन्तःकरण पवित्र हो।

शास्त्र सिद्धि का तात्पर्य है—शास्त्रकार की मूल भावना को समझना और यह जानना कि यह प्रतिपादन किस देश, काल, पात्र को ध्यान में रखकर किया गया है। कोई सिद्धान्त या प्रतिपादन सार्वभौम या सर्वकालीन नहीं होता। यह शास्त्र वचन किस प्रकार प्रयुक्त करना चाहिए, यह सूक्ष्म ज्ञान होना ही शब्द की सिद्धि है।

आधिदैविक ताप सहन शक्ति का अर्थ है—दैवी प्रकोप अथवा प्रारब्ध जन्म योग के कारण, आकस्मिक अनायास विपत्तियां उत्पन्न हो जाने, प्रियजनों के कारण विछोह आदि के अवसर उपस्थित हो जाने पर उन शोक सम्वेदनाओं का धैर्यपूर्वक सहन।

आध्यात्मिक ताप सहन शक्ति का तात्पर्य है—काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद-मत्सर, ईर्ष्या आदि उद्वेगों को नियन्त्रण में रखना। इन्द्रियों के अमर्यादित योग को छूट न देना, मन को उच्छृंखल न होने देना। इस अवरोध से भीतर जो असन्तोष उत्पन्न होता है उसको हंसते हुए टाल देना।

विज्ञान शक्ति का अर्थ है—शुद्ध अन्तःकरण, निर्मल चरित्र, सन्तुलित मन, सौम्य स्वभाव और हंस मुख प्रकृति, निरालस्यता स्फूर्तिवान और नियम-पालन की तत्परता, कर्त्तव्य-पालन में प्रगाढ़ निष्ठा, उदार व्यवहार में सन्तोष।

विद्या शक्ति अर्थात्—आत्मा के स्वरूप, उद्देश्य तथा कर्त्तव्य पर भावना और विश्वास भरी निष्ठा, ईश्वर पर विश्वास, आत्मा को सर्वव्यापी समझ कर सबको अपना ही समझना और आत्मीयता भरा व्यवहार करना, प्रेम भावनाओं का उभार, उद्वेग और आवेशों से निवृत्ति।

अतिवादी या अति उच्चस्तरीय अपवाद रूप में कहीं-कहीं, कभी-कभी सुनी, देखी जाने वाली सिद्धियों में

(1) अणिमा (2) महिमा (3) गरिमा (4) लघिमा (5) प्राप्ति (6) प्राकाम्य (7) ईशत्व (8) वशित्व का वर्णन मिलता है।

अणिमा अर्थात्—शरीर को अणु के समान सूक्ष्म बना लेना। महिमा अर्थात्—बहुत बड़ा कर लेना। गरिमा—बहुत भारीपन। लघिमा—बहुत हलकापन। प्राप्ति—दूरस्थ वस्तु की समीपता। प्राकाम्य—मनोरथों की पूर्ति। ईशत्व—स्वामित्व, अभीष्ट वस्तु व्यक्ति या परिस्थिति पर अधिकार। वशित्व—वशवर्ती बना लेना।

अष्ट सिद्धियों का दूसरा वर्णन एक और भी मिलता है—

(1) परकाया प्रवेश (2) जलादि में असंग (3) उत्क्रान्ति (4) ज्वलन (5) दिव्य श्रवण (6) आकाश गमन (7) प्रकाश आवरण क्षय (8) भूत जय।

संचालन के सिधान्तों को जाना व प्रयोग किया जा सकता है किन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि किस योग से क्या घटित होता है इसी विषय पर संक्षिप्त लेख प्रस्तुत किया जा रहा है सभी योग के सिद्धि को प्राप्त करने की प्रक्रिया अलग-अलग है अतः प्रक्रिया पर पुनः विचार किया जायेगा योग के सिद्धियों की संख्या बहुत अधिक है, नीचे हम कुछ महत्वपूर्ण सिद्धियों का संक्षिप्त में वर्णन कर रहे हैं।

(1) यह जगत संस्कारों (काल-समय) का परिणाम है और उन संस्कारों के क्रम में अदल-बदल होने से ही तरह-तरह के परिवर्तन होते रहते हैं। योगी इस तत्व को जान कर प्रत्येक वस्तु और घटना के ‘भूत’ तथा भविष्यत् का ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

(2) शब्द, अर्थ और ज्ञान का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है इनके ‘संयम’ (धारणा, ध्यान और समाधि, इन तीनों साधन क्रियाओं के एकीकरण को ‘संयम’ कहते हैं) से ‘सब प्राणियों की वाणी’ का ज्ञान हो जाता है।

(3) अति सूक्ष्म संस्कारों (काल-समय) को प्रत्यक्ष देख सकने के कारण योगी को किसी भी व्यक्ति के पूर्व जन्म या अगले जन्म का ज्ञान होता है।

(4)अपने ज्ञान में संयम करने पर दूसरों के चित्त का ज्ञान होता है। इसके द्वारा योगी प्रत्येक प्राणी के मन की बात जान सकता है।

(5) कायागत रूप में संयम करने से दूसरों के नेत्रों के प्रकाश का योगी के शरीर के साथ संयोग नहीं होता। इससे योगी का शरीर ‘अन्तर्धान’ हो जाता है। इसी प्रकार उसके शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध को भी पास में बैठा हुआ पुरुष नहीं जान सकता।

(6) ’सोपक्रम’ का अभ्यास करने से योगी को मृत्यु का पूर्व ज्ञान हो जाता है।

(7) सातवीं सिद्धि (ध्यान) से योगी के आत्म-बल का इतना विकास हो जाता है कि उसके मन पर इन्द्रियों का वश नहीं चलता।।

(8) बल में संयम करने से योगी को हाथी, शेर, ग्राह, गरुड़ की शक्ति प्राप्त होती है।

(9) ज्योतिष्मती प्रकृति के प्रकाश को सूक्ष्म वस्तुओं पर न्यास्त करके संयम करने से सूक्ष्म, गुप्त और दूरस्थ पदार्थों का ज्ञान होता है। इससे वह जल या पृथ्वी के भीतर समस्त पदार्थों को देख सकने में समर्थ होता है।

(10) सूर्य नारायण में संयम करने से योगी को क्रमशः स्थूल और सूक्ष्म लोकों का ज्ञान होता है। सात स्वर्ग और सप्त पाताल सूक्ष्म लोक कहे जाते हैं। योगी का अन्यान्य ब्रह्मांडों का भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

(11) चंद्रमा में संयम करने से समस्त राशियों और नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त होता है।

(12) ध्रुव में संयम करने से समस्त ताराओं की गति का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है।

(13) नाभि चक्र में संयम करने से योगी को शरीर के भीतरी अंगों का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। वात, पित्त, कफ ये तीन दोष किस रीति से हैं; चर्म, रुधिर, माँस, नख, हाथ, चर्बी और वीर्य ये सात धातुएँ किस प्रकार से हैं; नाड़ी आदि कैसी-कैसी हैं, इन सब का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

(14) कण्ठकूप में संयम करने से भूख और प्यास निवृत्त हो जाती है। मुख के भीतर उदर में वायु और आहार जाने के लिये जो कण्ठछिद्र है उसी का ‘कण्ठ कूप’ कहते हैं। यही पर पाँचवाँ चक्र स्थित है और क्षुधा, पिपासा आदि क्रियाओं का इससे घनिष्ठ सम्बन्ध है।

(15) कूर्म नाड़ी में संयम करने से मन अपनी चंचलता त्याग कर व्यक्ति स्थिर हो जाता है।

(16) कपाल की ज्योति में संयम करने से योगी को सिद्धजनों के दर्शन होते हैं। सिद्ध महात्मागण जीव श्रेणी से मुक्त होकर सृष्टि के कल्याणार्थ चौदह भुवन में विराजते हैं।

(17) योग-साधन करते समय ध्यानावस्था में दिखलाई पड़ने वाले ‘प्रातिभ’ नामक तारे में संयम करने से ज्ञान-राज्य की समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

(18) हृदय में संयम करने से चित्त का पूर्ण ज्ञान होता है। वैसे महामाया की माया से कोई चित्त का पूर्ण स्वरूप नहीं जान पाता, पर जब योगी हृदयकमल पर संयम करता है तो अपने चित्त का पूर्ण ज्ञाता प्राप्त कर लेता है।

(19) बुद्धि की चिद्भाव अवस्था में संयम करने से पुरुष के स्वरूप का ज्ञान होता है। इससे योगी को (1) प्रातिभ, (2) श्रावण, (3) वेदन, (4) आदर्श, (5) आस्वाद और (6) वार्ता — ये षट्सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

(20) बन्धन का जो कारण है उसके शिथिल हो जाने से और संयम द्वारा चित्त की प्रवेश निर्गमन मार्ग नाड़ी का ज्ञान हो जाने से योगी किसी भी शरीर में प्रवेश कर सकता है। यही परकाया प्रवेश की सिद्ध है।

(21) उदान वायु को जीतने से जल, कीचड़ और कण्टक आदि पदार्थों का योगी को स्पर्श नहीं होता और मृत्यु भी वशीभूत हो जाती है अर्थात् वह इच्छा मृत्यु को प्राप्त होता है जैसा कि भीष्म पितामह का उदाहरण प्रसिद्ध है।

(22) समान वायु को वश में करने से योगी का शरीर तेज-पुञ्ज और ज्योतिर्मय हो जाता है। जिससे अंधकार में भी गमन कर सकता है ।

(23) कर्ण इन्द्रिय और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से योगी को दिव्य श्रवण की शक्ति प्राप्त होती है। अर्थात् वह गुप्त से गुप्त, सूक्ष्म से सूक्ष्म और दूरवर्ती से दूरवर्ती शब्दों को भली प्रकार सुन सकता है।

(24) शरीर और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से आकाश में गमन हो सकता है।

(25)शरीर के बाहर मन की जो स्वाभाविक वृत्ति ‘महा विदेह धारणा’ है उसमें संयम करने से अहंकार का नाश हो जाता है और योगी अपने अन्तःकरण को यथेच्छा (किसी भी लोक में) ले जाने की सिद्धि प्राप्त करता है।

(26) पंच तत्वों की स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थतत्व — ये पाँच अवस्थाएँ हैं। इन पर संयम करने से जगत् का निर्माण करने वाले पंचभूतों पर जयलाभ होता है और प्रकृति वशीभूत हो जाती है। इससे अणिमा, लघिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व, ईशित्व — ये अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इस प्रकार योगी, समाधि अवस्था में पहुँचने के बाद जिस किसी विषय पर अपना ध्यान लगाता है उसी का पूर्ण ज्ञान किसी से बिना सीखे अथवा बिना कहीं गये हुये प्राप्त हो जाता है।

अन्त में परमात्मा की ओर अग्रसर होते हुये उसे वैसी ही शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं जो ईश्वर में पाई जाती है। वह त्रिकालदर्शी हो जाता है और सब लोकों में उसकी गति हो जाती है और उसके संकल्प मात्र से महान परिवर्तन हो जाते हैं। पर यह सब कुछ संभव होने पर भी महात्माओं का मत यही है कि साधक को अपना लक्ष्य सदा मोक्ष रखना चाहिये। ये समस्त सिद्धियाँ “अपरा” कही जाती हैं। परा सिद्धि मोक्ष ही है जिसका लक्ष्य अपने स्वरूप अनुभव करके मुक्ति प्राप्त करना होता है।

कुंडलिनी वह रहस्यमय शक्ति है, जो व्यक्ति के शरीर में सूक्ष्म रूप में व्याप्त है। इसे जगाने की एक विधि है, जिसे गुरु परंपरा से सीखा जा सकता है। जब यह शक्ति जागने लगती है तो विभिन्न मुद्राएं, प्रणायाम या आसन आदि क्रियाएं अपने आप होने लगती है। कुंडलिनी विद्या को गुरु परंपरा से प्राप्त ज्ञान भी कहा जाता है। यदि साधक तीव्र जिज्ञासु हो और आसन प्राणायाम आदि को तीव्र गति से लंबे समय तक नियमित रूप से करता है तब भी कुंडलिनी जागृत हो जाती है। स्वयं साधना करने से कुंडलिनी जागृत हो जाती है तो भी कुंडलिनी योग परंपरा में ऐसा माना जाता है कि गुरु की कृपा से जागृत शक्ति ही अभी जागृत हुई है।हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि जिस प्रकार डंडे की मार खाकर सांप सीधा डंडे की आकृति वाला हो जाता है, उसी प्रकार जालंधर बंध करके वायु को ऊपर ले जाकर कुंभक का अभ्यास करें। साधक धीरे धीरे श्वास छोड़ें। इस महामुद्रा से कुंडलिनी शक्ति सीधी (जागृत) हो जाती है। कुंडलिनी को सहस्त्रार तक पहुंचा कर उसे स्थित रखना है या समाधि को प्राप्त करना है, तब साधक को विकारों का त्याग करना पड़ता है। कुंडलिनी जागृत होने के बाद साधक निरंतर उसका अभ्यास करता है। यदि साधना काल में साधक अपने विकारों को योग के जरिए समाप्त नहीं करता तब वह शक्ति फिर निम्न चक्रों में पतन की आशंका बनी रहती है।

आकाश में दिखाई देने वाला सूर्य तो अग्नि का एक अत्यंत विराट पिंड है। पर उससे निकलने वाली किरणें और प्रवाह पृथ्वी के अलावा सात आठ अन्य ग्रहों पर भी अपरिमित शक्ति का भंडार भरपूर रखता है।

एक छोटा सा विवरण मस्तिष्क की और सूर्य की शक्ति के विस्फोट से होने वाले चमत्कार की तुलना के रुप में दिखाया गया है। इस तुलना में मनुष्य की और गणेश के चरित में आरोपित की गई शक्तियों से आंकी जाती है।

इन शक्तियों का ब्यौरा जुटाते हुए विज्ञान और अध्यात्म विषयों के लेखक डा।हरि देसाई ने लिखा है कि मनुष्य हाथ से जितनी देर में एक अंक लिखता है, उतनी देर में कंप्यूटर सोलह अंकों वाली किसी भी संख्या के गुणनफल, लघुत्तम और समापरवर्तक निकाल सकता है।

आदमी ज्यादा से ज्यादा पांच हजार शब्द याद रख सकता हैं, पर कंप्यूटर उतनी ही देऱ में साठ हजार शब्द याद कर लेता है। कोई व्यक्ति एक बार में कठिनाई से छह भाषाएं याद रख सकता है, पर कंप्यूटर एक बार में तीन सौ से ज्यादा भाषाएं सीख और याद कर सकता है।

ध्यान में होने वाले अनुभव

साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं। अनेक साधकों के ध्यान में होने वाले अनुभव एकत्रित कर यहाँ वर्णन कर रहे हैं ताकि नए साधक अपनी साधना में अपनी साधना में यदि उन अनुभवों को अनुभव करते हों तो वे अपनी साधना की प्रगति, स्थिति व बाधाओं को ठीक प्रकार से जान सकें और स्थिति व परिस्थिति के अनुरूप निर्णय ले सकें।

१। भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर पहले काला और फिर नीला रंग दिखाई देता है। फिर पीले रंग की परिधि वाले नीला रंग भरे हुए गोले एक के अन्दर एक विलीन होते हुए दिखाई देते हैं। एक पीली परिधि वाला नीला गोला घूमता हुआ धीरे-धीरे छोटा होता हुआ अदृश्य हो जाता है और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है। इस प्रकार यह क्रम बहुत देर तक चलता रहता है। साधक यह सोचता है इक यह क्या है, इसका अर्थ क्या है ? इस प्रकार दिखने वाला नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है। नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है। पीला रंग आत्मा का प्रकाश है जो जीवात्मा के आत्मा के भीतर होने का संकेत है।

इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण है। इससे भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्षा दीखने लगते है और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं। साथ ही हमारे मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है जिससे हम असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेते हैं।

अध्यात्म और योग का सबसे ऊँचा ज्ञान शिव सूत्र से निकालकर कहानी और गाने “झूठ पुलिंदा” के माध्यम से आप सभी भक्तों को समर्पित है।

२। कुण्डलिनी जागरण का अनुभव :-

कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिर परमात्मा में लीन हो जाते हैं। अर्थात यह ईश्वर की साक्षात् शक्ति है। यह कुदालिनी शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शारीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है। जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक हम सांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं। परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुदा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमता हुआ ऊपर उठ रहा है। यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है। यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है।

जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है। यह स्पंदन लगभग वैसा ही होता है जैसे हमारा कोई अंग फड़कता है। फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुक जाती है। जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है, यानि उनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है। इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर हम सांसारिक विषय भोगों से विरक्त हो जाते हैं और ईश्वर प्राप्ति की ओर हमारा मन लग जाता है। इसके अतिरिक्त हमारी कार्यक्षमता कई गुना बढ जाती है। कठिन कार्य भी हम शीघ्रता से कर लेते हैं।

३। कुण्डलिनी जागरण के लक्षण :

कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षण हैं : ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं हूं या गर्जना के शब्द करना, गेंद की तरह एक ही स्थान पर फुदकना, गर्दन का भाग ऊंचा उठ जाना, सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र पर चींटियाँ चलने जैसा लगना, कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है ऐसा लगना, मुंह का पूरा खुलना और चेहरे की मांसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है।

४। एक से अधिक शरीरों का अनुभव होना :

कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है। यानि एक तो यह स्थूल शारीर है और उस शरीर से निकलते हुए २ अन्य शरीर। तब साधक कई बार घबरा जाता है। वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़ भी देता है। परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है।

एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है। दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है तीसरा शरीर कारण शारीर कहलाता है। सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शारीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि। परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है। तीसरा शरीर कारण शरीर है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं। मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है। इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं।

५। दो शरीरों का अनुभव होना :-

अनाहत चक्र (हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों का अनुभव होता ही है। कई बार साधकों को लगता है जैसे उनके शरीर के छिद्रों से गर्म वायु निकर्लर एक स्थान पर एकत्र हुई और एक शरीर का रूप धारण कर लिया जो बहुत शक्तिशाली है। उस समय यह स्थूल शरीर जड़ पदार्थ की भांति क्रियाहीन हो जाता है। इस दूसरे शरीर को सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर कहते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सूक्ष्म शरीर हवा में तैर रहा है और वह शरीर हमारे स्थूल शरीर की नाभी से एक पतले तंतु से जुड़ा हुआ है।

कभी ऐसा भी अनुभव अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल गया मतलब जीवात्मा हमारे शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी। ऐसा विचार आते ही हम उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं परन्तु यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है। “स्थूल शरीर मैं ही हूँ” ऐसी भावना करने से व ईश्वर का स्मरण करने से वह सूक्ष्म शरीर शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है। कई बार संतों की कथाओं में हम सुनते हैं कि वे संत एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं, ऐसा उस सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही संभव होता है। उस सूक्ष्म शरीर के लिए कोई आवरण-बाधा नहीं है, वह सब जगह आ जा सकता है।

६। दिव्य ज्योति दिखना :-

सूर्य के सामान दिव्य तेज का पुंज या दिव्य ज्योति दिखाई देना एक सामान्य अनुभव है। यह कुण्डलिनी जागने व परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर होता है। उस तेज को सहन करना कठिन होता है। लगता है कि आँखें चौंधिया गईं हैं और इसका अभ्यास न होने से ध्यान भंग हो जाता है। वह तेज पुंज आत्मा व उसका प्रकाश है। इसको देखने का नित्य अभ्यास करना चाहिए। समाधि के निकट पहुँच जाने पर ही इसका अनुभव होता है।

७। ध्यान में कभी ऐसे लगता है जैसे पूरी पृथ्वी गोद में रखी हुई है या शरीर की लम्बाई बदती जा रही है और अनंत हो गई है, या शरीर के नीचे का हिस्सा लम्बा होता जा रहा है और पूरी पृथ्वी में व्याप्त हो गया है, शरीर के कुछ अंग जैसे गर्दन का पूरा पीछे की और घूम जाना, शरीर का रूई की तरह हल्का लगना, ये सब ध्यान के समय कुण्डलिनी जागरण के कारण अलग-अलग चक्रों की प्रतिभाएं प्रकट होने के कारण होता है। परन्तु साधक को इनका उपयोग नहीं करना चाहिए, केवल परमात्मा की प्राप्ति को ही लक्ष्य मानकर ध्यान करते रहना चाहिए। इन प्रतिभाओं पर ध्यान न देने से ये पुनः अंतर्मुखी हो जाती हैं।

८। कभी-कभी साधक का पूरा का पूरा शरीर एक दिशा विशेष में घूम जाता है या एक दिशा विशेष में ही मुंह करके बैठने पर ही बहुत अच्छा ध्यान लगता है अन्य किसी दिशा में नहीं लगता। यदि अन्य किसी दिशा में मुंह करके बैठें भी, तो शरीर ध्यान में अपने आप उस दिशा विशेष में घूम जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपके ईष्ट देव या गुरु का निवास उस दिशा में होता है जहाँ से वे आपको सन्देश भेजते हैं। कभी-कभी किसी मंत्र विशेष का जप करते हुए भी ऐसा महसूस हो सकता है क्योंकि उस मंत्र देवता का निवास उस दिशा में होता है, और मंत्र जप से उत्पन्न तरंगें उस देवता तक उसी दिशा में प्रवाहित होती हैं, फिर वहां एकत्र होकर पुष्ट (प्रबल) हो जाती हैं और इसी से उस दिशा में खिंचाव महसूस होता है।

९। संसार (दृश्य) व शरीर का अत्यंत अभाव का अनुभव :-

साधना की उच्च स्थिति में ध्यान जब सहस्रार चक्र पर या शरीर के बाहर स्थित चक्रों में लगता है तो इस संसार (दृश्य) व शरीर के अत्यंत अभाव का अनुभव होता है। यानी एक शून्य का सा अनुभव होता है। उस समय हम संसार को पूरी तरह भूल जाते हैं (ठीक वैसे ही जैसे सोते समय भूल जाते हैं)। सामान्यतया इस अनुभव के बाद जब साधक का चित्त वापस नीचे लौटता है तो वह पुनः संसार को देखकर घबरा जाता है, क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं होता कि उसने यह क्या देखा है?

वास्तव में इसे आत्मबोध कहते हैं। यह समाधि की ही प्रारम्भिक अवस्था है अतः साधक घबराएं नहीं, बल्कि धीरे-धीरे इसका अभ्यास करें। यहाँ अभी द्वैत भाव शेष रहता है व साधक के मन में एक द्वंद्व पैदा होता है। वह दो नावों में पैर रखने जैसी स्थिति में होता है, इस संसार को पूरी तरह अभी छोड़ा नहीं और परमात्मा की प्राप्ति अभी हुई नहीं जो कि उसे अभीष्ट है। इस स्थिति में आकर सांसारिक कार्य करने से उसे बहुत क्लेश होता है क्योंकि वह परवैराग्य को प्राप्त हो चुका होता है और भोग उसे रोग के सामान लगते हैं, परन्तु समाधी का अभी पूर्ण अभ्यास नहीं है।

इसलिए साधक को चाहिए कि वह धैर्य रखें व धीरे-धीरे समाधी का अभ्यास करता रहे और यथासंभव सांसारिक कार्यों को भी यह मानकर कि गुण ही गुणों में बारात रहे हैं, करता रहे और ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखे। साथ ही इस समय उसे तत्त्वज्ञान की भी आवश्यकता होती है जिससे उसके मन के समस्त द्वंद्व शीघ्र शांत हो जाएँ। इसके लिए योगवाशिष्ठ (महारामायण) नामक ग्रन्थ का विशेष रूप से अध्ययन व अभ्यास करें। उमें बताई गई युक्तियों “जिस प्रकार समुद्र में जल ही तरंग है, सुवर्ण ही कड़ा/कुंडल है, मिट्टी ही मिट्टी की सेना है, ठीक उसी प्रकार ईश्वर ही यह जगत है।” का बारम्बार चिंतन करता रहे तो उसे शीघ्र ही परमत्मबोध होता है, सारा संसार ईश्वर का रूप प्रतीत होने लगता है और मन पूर्ण शांत हो जाता है।

१०। चलते-फिरते उठते बैठते यह महसूस होना कि सब कुछ रुका हुआ है, शांत है, “मैं नहीं चल रहा हूँ, यह शरीर चल रहा है”, यह सब आत्मबोध के लक्षण हैं यानि परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर यह अनुभव होता है।

११। कई साधकों को किसी व्यक्ति की केवल आवाज सुनकर उसका चेहरा, रंग, कद, आदि का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है और जब वह व्यक्ति सामने आता है तो वह साधक कह उठता है कि, “अरे! यही चेहरा, यही कद-काठी तो मैंने आवाज सुनकर देखी थी, यह कैसे संभव हुआ कि मैं उसे देख सका?” वास्तव में धारणा के प्रबल होने से, जिस व्यक्ति की ध्वनि सुनी है, साधक का मन या चित्त उस व्यक्ति की भावना का अनुसरण करता हुआ उस तक पहुँचता है और उस व्यक्ति का चित्र प्रतिक्रिया रूप उसके मन पर अंकित हो जाता है। इसे दिव्या दर्शन भी कहते हैं।

१२। आँखें बंद होने पर भी बाहर का सब कुछ दिखाई देना, दीवार-दरवाजे आदि के पार भी देख सकना, बहुत दूर स्थित जगहों को भी देख लेना, भूत-भविष्य की घटनाओं को भी देख लेना, यह सब आज्ञा चक्र (तीसरी आँख) के खुलने पर अनुभव होता है।

१३। अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के मन की बात जान लेना या दूर स्थित व्यक्ति क्या कर रहा है (दु:खी है, रो रहा है, आनंद मना रहा है, हमें याद कर रहा है, कही जा रहा है या आ रहा है वगैरह) इसका अभ्यास हो जाना और सत्यता जांचने के लिए उस व्यक्ति से उस समय बात करने पर उस आभास का सही निकलना, यह सब दूसरों के साथ अपने चित्त को जोड़ देने पर होता है। यह साधना में बाधा उत्पन्न करने वाला है क्र्योकि दूसरों के द्वारा इस प्रकार साधक का मन अपनी और खींचा जाता है और ईश्वर प्राप्ति के अभ्यास के लिए कम समय मिलता है और अभय कम हो पाता है जिससे साधना दीरे-धीरे क्षीण हो जाती है। इसलिए इससे बचना चाहिए। दूसरों के विषय में सोचना छोड़ें। अपनी साधना की और ध्यान दें। इससे कुछ ही दिनों में यह प्रतिभा अंतर्मुखी हो जाती है और साधना पुनः आगे बदती है।

१४। ईश्वर के सगुण स्वरुप का दर्शन :-

ईश्वर के सगुण रूप की साधना करने वाले साधानकों को, भगवान का वह रूप कभी आँख वंद करने या कभी बिना आँख बंद किये यानी खुली आँखों से भी दिखाई देने का आभास सा होने लगता है या स्पष्ट दिखाई देने लगता है। उस समय उनको असीम आनंद की प्राप्ति होती है। परन्तु मन में यह विश्वास नहीं होता कि ईश्वर के दर्शन किये हैं। वास्तव में यह सवितर्क समाधि की सी स्थिति है जिसमे ईश्वर का नाम, रूप और गुण उपस्थित होते हैं। ऋषि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में इसे सवितर्क समाधि कहा है। ईश्वर की कृपा होने पर (ईष्ट देव का सान्निध्य प्राप्त होने पर) वे साधक के पापों को नष्ट करने के लिए इस प्रकार चित्त में आत्मभाव से उपस्थित होकर दर्शन देते हैं और साधक को अज्ञान के अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की और खींचते हैं। इसमें ईश्वर द्वारा भक्त पर शक्तिपात भी किया जाता है जिससे उसे परमानन्द की अनुभूति होती है। कई साधकों/भक्तों को भगवान् के मंदिरों या उन मंदिरों की मूर्तियों के दर्शन से भी ऐसा आनंद प्राप्त होता है। ईष्ट प्रबल होने पर ऐसा होता है। यह ईश्वर के सगुन स्वरुप के साक्षात्कार की ही अवस्था है इसमें साधक कोई संदेह न करें।

अध्यात्म और योग का सबसे ऊँचा ज्ञान शिव सूत्र से निकालकर कहानी और गाने “झूठ पुलिंदा” के माध्यम से आप सभी भक्तों को समर्पित है।

१५। कई सगुण साधक ईश्वर के सगुन स्वरुप को उपरोक्त प्रकार से देखते भी हैं और उनसे वार्ता भी करने का प्रयास करते हैं। इष्ट प्रबल होने पर वे बातचीत में किये गए प्रश्नों का उत्तर प्रदान करते हैं, या किसी सांसारिक युक्ति द्वारा साधक के प्रश्न का हल उपस्थित कर देते हैं। यह ईष्ट देव की निकटता व कृपा प्राप्त होने पर होता है। इसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। साधना में आने वाले विघ्नों को अवश्य ही ईश्वर से कहना चाहिए और उनसे सदा मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए। वे तो हमें सदा राह दिखने के लिए ही तत्पर हैं परन्तु हम ही उनसे राह नहीं पूछते हैं या वे मार्ग दिखाते हैं तो हम उसे मानते नहीं हैं, तो उसमें ईश्वर का क्या दोष है? ईश्वर तो सदा सबका कल्याण ही चाहते हैं।

7 चक्र
7 चक्र

 

 

 

१६। शक्तिपात :-

हमारे गुरु या ईष्ट देव हम पर समयानुसार शक्तिपात भी करते रहते हैं। उस समय हमें ऐसा लगता है जैसे मूर्छा (बेहोशी) सी आ रही है या अचानक आँखें बंद होकर गहन ध्यान या समाधि की सी स्थिति हो जाती है, साथ ही एक दिव्य तेज का अनुभव होता है और परमानंद का अनुभव बहुत देर तक होता रहता है। ऐसा भी लगता है जैसे कोई दिव्या धारा इस तेज पुंज से निकलकर अपनी और बह रही हो व अपने अपने भीतर प्रवेश कर रही हो। वह आनंद वर्णनातीत होता है। इसे शक्तिपात कहते है।

जब गुरु सामने बैठकर शक्तिपात करते हैं तो ऐसा लगता है की उनकी और देखना कठिन हो रहा है। उनके मुखमंडल व शरीर के चारों तरफ दिव्य तेज/प्रकाश दिखाई देने लगता है और नींद सी आने लगती है और शरीर एकदम हल्का महसूस होता है व परमानन्द का अनुभव होता है। इस प्रकार शक्तिपात के द्वारा गुरु पूर्व के पापों को नष्ट करते हैं व कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करते हैं।

ध्यान/समाधी की उच्च अवस्था में पहुँच जाने पर ईष्ट देव या ईश्वर द्वारा शक्तिपात का अनुभव होता है। साधक को एक घूमता हुआ सफ़ेद चक्र या एक तेज पुंज आकाश में या कमरे की छत पर दीख पड़ता है और उसके होने मात्र से ही परमानन्द का अनुभव ह्रदय में होने लगता है। उस समय शारीर जड़ सा हो जाता है व उस चक्र या पुंज से सफ़ेद किरणों का प्रवाह निकलता हुआ अपने शरीर के भीतर प्रवेश करता हुआ प्रतीत होता है। उस अवस्था में बिजली के हलके झटके लगने जैसा अनुभव भी होता है और उस झटके के प्रभाव से शरीर के अंगा भी फड़कते हुए देखे जाते हैं।

यदि ऐसे अनुभव होते हों तो समझ लेना चाहिए कि आप पर ईष्ट या गुरु की पूर्ण कृपा हो गई है, उनहोंने आपका हाथ पकड़ लिया है और वे शीघ्र ही आपको इस माया से बाहर खींच लेंगे।

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१७। अश्विनी मुद्रा, मूल बांध का लगना :-

श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना। या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं। कई साधक इसे अनजाने में करते रहते हैं और इसको करने से उन्हें दिव्य शक्ति या आनंद का अनुभव भी होता है परन्तु वे ये नहीं जानते कि वे एक यौगिक क्रिया कर रहे हैं।

अश्विनी मुद्रा का अर्थ है “अश्व यानि घोड़े की तरह करना”। घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है। इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है। यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं। विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं। स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता।

प्रत्येक नए साधक को या जिनकी साधना रुक गई है उनको यह अश्विनी मुद्रा अवश्य करनी चाहिए। इसको करने से शरीर में गरमी का अनुभव भी हो सकता है, उस समय इसे कम करें या धीरे-धीरे करें व साथ में प्राणायाम भी करें। सर्दी में इसे करने से ठण्ड नहीं लगती। मन एकाग्र होता है। साधक को चाहिए कि वह सब अवस्थाओं में इस अश्विनी मुद्रा को अवश्य करता रहे। जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है उतनी ही शक्ति बदती जाती है। इस क्रिया को करने से प्राण का क्षय नहीं होता और इस प्राण उर्जा का उपयोग साधना की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति के लिए या विशेष योग साधनों के लिए किया जा सकता है।

मूल बांध इस अश्विनी मुद्रा से मिलती-जुलती प्रक्रिया है। इसमें गुदा द्वार को सिकोड़कर बंद करके भीतर – ऊपर की और खींचा जाता है। यह वीर्य को ऊपर की और भेजता है एवं इसके द्वारा वीर्य की रक्षा होती है। यह भी कुंडलिनी जागरण व अपानवायु पर विजय का उत्तम साधन है। इस प्रकार की दोनों क्रियाएं स्वतः हो सकती हैं। इन्हें अवश्य करें। ये साधना में प्रगति प्रदान करती हैं।

१८। गुरु या ईष्ट देव की प्रबलता :-

जब गुरु या ईष्ट देव की कृपा हो तो वे साधक को कई प्रकार से प्रेरित करते हैं। अन्तःकरण में किसी मंत्र का स्वतः उत्पन्न होना व इस मंत्र का स्वतः मन में जप आरम्भ हो जाना, किसी स्थान विशेष की और मन का खींचना और उस स्थान पर स्वतः पहुँच जाना और मन का शांत हो जाना, अपने मन के प्रश्नों के समाधान पाने के लिए प्रयत्न करते समय अचानक साधू पुरुषों का मिलना या अचानक ग्रन्थ विशेषों का प्राप्त होना और उनमें वही प्रश्न व उसका उत्तर मिलना, कोई व्रत या उपवास स्वतः हो जाना, स्वप्न के द्वारा आगे घटित होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त होना व समय आने पर उनका घटित हो जाना, किसी घोर समस्या का उपाय अचानक दिव्य घटना के रूप में प्रकट हो जाना, यह सब होने पर साधक को आश्चर्य, रोमांच व आनंद का अनुभव होता है। वह सोचने लगता है की मेरे जीवन में दिव्य घटनाएं घटित होने लगी हैं, अवश्य ही मेरे इस जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य है, परन्तु वह क्या है यह वो नहीं समझ पाटा। किन्तु साधक धैर्य रखे आगे बढ़ता रहे, क्योंकि ईष्ट या गुरु कृपा तो प्राप्त है ही, इसमें संदेह न रखे; क्योंकि समय आने पर वह उद्देश्य अवश्य ही उसके सामने प्रकट हो जाएगा।

१९। ईष्ट भ्रष्टता का भ्रम :-

कई बार साधकों को ईष्ट भ्रष्टता का भ्रम उपस्थित हो जाता है। उदाहरण के लिए कोई साधक गणेशजी को इष्ट देव मानकर उपासना आरम्भ करता है। बहुत समय तक उसकी आराधना अच्छी चलती है, परन्तु अचानक कोई विघ्न आ जाता है जिससे साधना कम या बंद होने लगती है। तब साधक विद्वानों, ब्राह्मणों से उपाय पूछता है, तो वे जन्मकुंडली आदि के माध्यम से उसे किसी अन्य देव (विष्णु आदि) की उप्पसना के लिए कहते हैं। कुछ दिन वह उनकी उपासना करता है परन्तु उसमें मन नहीं लगता। तब फिर वह और किसी की पास जाता है। वह उसे और ही किसी दुसरे देव-देवी आदि की उपासना करने के लिए कहता है। तब साधक को यह लगता है की मैं अपने ईष्ट गणेशजी से भ्रष्ट हो रहा हूँ। इससे न तो गणेशजी ही मिलेंगे और न ही दूसरे देवता और मैं साधना से गिर जाऊँगा।

यहाँ साधकों से निवेदन है की यह सही है की वे अपने ईष्ट देव का ध्यान-पूजन बिलकुल नहीं छोड़ें, परन्तु वे उनके साथ ही उन अन्य देवताओं की भी उपासना करें। साधना के विघ्नों की शांति के लिए यह आवश्यक हो जाता है। उपासना से यहाँ अर्थ उन-उन देवी देवताओं के विषय में जानना भी है क्योंकि उन्हें जानने पर हम यह पाते हैं की वस्तुतः वे एक ही ईश्वर के अनेक रूप हैं (जैसे पानी ही लहर, बुलबुला, भंवर, बादल, ओला, बर्फ आदि है)। इस प्रकार ईष्ट देव यह चाहता है कि साधक यह जाने। इसलिए इसे ईष्ट भ्रष्टता नहीं बल्कि ईष्ट का प्रसार कहना चाहिए।

२०। शरीर का हल्का लगना :-

जब साधक का ध्यान उच्च केन्द्रों (आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र) में लगने लगता है तो साधक को अपना शरीर रूई की तरह बहुत हल्का लगने लगता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब तक ध्यान नीचे के केन्द्रों में रहता है (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर चक्र तक), तब तक “मैं यह स्थूल शरीर हूँ” ऐसी दृढ भावना हमारे मन में रहती है और यह स्थूल शरीर ही भार से युक्त है, इसलिए सदा अपने भार का अनुभव होता रहता है। परन्तु उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से “मैं शरीर हूँ” ऐसी भावना नहीं रहती बल्कि “मैं सूक्ष्म शरीर हूँ” या “मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ परमात्मा का अंश हूँ” ऎसी भावना दृढ हो जाती है। यानि सूक्ष्म शरीर या आत्मा में दृढ स्थिति हो जाने से भारहीनता का अनुभव होता है। दूसरी बात यह है कि उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है जो ऊपर की और उठती है। यह दिव्य शक्ति शरीर में अहम् भावना यानी “मैं शरीर हूँ” इस भावना का नाश करती है, जिससे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का भान होना कम हो जाता है। ध्यान की उच्च अवस्था में या शरीर में हलकी चीजों जैसे रूई, आकाश आदि की भावना करने से आकाश में चलने या उड़ने की शक्ति आ जाती है, ऐसे साधक जब ध्यान करते हैं तो उनका शरीर भूमि से कुछ ऊपर उठ जाता है। परन्तु यह सिद्धि मात्र है, इसका वैराग्य करना चाहिए।

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२१। हाथ के स्पर्श के बिना केवल दूर से ही वस्तुओं का खिसक जाना :-

कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे किसी हलकी वास्तु को उठाने के लिए जैसे ही अपना हाथ उसके पास ले जाते हैं तो वह वास्तु खिसक कर दूर चली जाती है, उस समय साधक को अपनी अँगुलियों में स्पंदन (झन-झन) का सा अनुभव होता है। साधक आश्चर्यचकित होकर बार-बार इसे करके देखता है, वह परीक्षण करने लगता है कि देखें यह दुबारा भी होता है क्या। और फिर वही घटना घटित होती है। तब साधक यह सोचता है कि अवश्य ही यह कोई दिव्य घटना उसके साथ घटित हो रही है। वास्तव में यह साधक के शरीर में दिव्य उर्जा (कुंडलिनी, मंत्र जप, नाम जप आदि से उत्पन्न उर्जा) के अधिक प्रवाह के कारण होता है। वह दिव्य उर्जा जब अँगुलियों के आगे एकत्र होकर घनीभूत होती है तब इस प्रकार की घटना घटित हो जाती है।

२२। रोगी के रुग्ण भाग पर हाथ रखने से उसका स्वस्थ होना :-

कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे अनजाने में किसी रोगी व्यक्ति के रोग वाले अंग पर कुछ समय तक हाथ रखते हैं और वह रोग नष्ट हो जाता है। तब सभी लोग इसे आश्चर्य की तरह देखते हैं। वास्तव में यह साधक के शरीर से प्रवाहित होने वाली दिव्य उर्जा के प्रभाव से होता है। रोग का अर्थ है उर्जा के प्रवाह में बाधा उत्पन्न हो जाना। साधक के संपर्क से रोगी की वह रुकी हुई उर्जा पुनः प्रवाहित होने लगती है, और वह स्वस्थ हो जाता है। मंत्र शक्ति व रेकी चिकित्सा पद्धति का भी यही आधार है कि मंत्र एवं भावना व ध्यान द्वारा रोगी की उर्जा के प्रवाह को संतुलित करने की तीव्र भावना करना।

आप अपने हाथ की अंजलि बनाकर उल्टा करके अपने या अन्य व्यक्ति के शरीर के किसी भाग पर बिना स्पर्श के थोडा ऊपर रखें। फिर किसी मंत्र का जप करते हुए अपनी अंजलि के नीचे के स्थान पर ध्यान केन्द्रित करें और ऐसी भावना करें कि मंत्र जप से उत्पन्न उर्जा दुसरे व्यक्ति के शरीर में जा रही है। कुछ ही देर में आपको कुछ झन झन या गरमी का अनुभव उस स्थान पर होगा। इसे ही दिव्य उर्जा कहते हैं। यह मंत्र जाग्रति का लक्षण है।

२३। अंग फड़कना :-

शिव पुराण के अनुसार यदि सात या अधिक दिन तक बांयें अंग लगातार फड़कते रहें तो मृत्यु योग या मारक प्रयोग (अभिचारक प्रयोग) हुआ मानना चाहिए। कोई बड़ी दुर्घटना या बड़ी कठिन समस्या का भी यह सूचक है। इसके लिए पहले कहे गए उपाय करें (देखें विघ्न सूचक स्वप्नों के उपाय)। इसके अतिरिक्त काली की उपासना करें। दुर्गा सप्तशती में वर्णित रात्रिसूक्तम व देवी कवच का पाठ करें। मान काली से रक्षार्थ प्रार्थना करें।

दांयें अंग फड़कने पर शुभ घटना घटित होती है, साधना में सफलता प्राप्त होती है। यदि बांया व दांया दोनों अंग एक साथ फडकें तो समझना चाहिए कि विपत्ति आयेगी परन्तु ईश्वर की कृपा से बहुत थोड़े से नुक्सान में ही टल जायेगी। एक और संकेत यह भी है कि कोई पूर्वजन्म के पापों के नाश का समय है इसलिए वे पाप के फल प्रकट तो होंगे किन्तु ईश्वर की कृपा से कोई विशेष हानि नहीं कर पायेंगे। इसके अतिरिक्त यह साधक के कल्याण के लिए ईश्वर के द्वारा बनाई गई योजना का भी संकेत है।

२४। गुरु/ईष्ट के परकाय प्रवेश द्वारा साधक को परमात्मबोध की प्राप्ति :-

गुरु या ईष्ट देव अपने सूक्ष्म शरीर से साधक के शरीर में प्रवेश करते हैं और उसे प्रबुद्ध करते हैं। प्रारम्भ में साधक को यह महसूस होता है कि आसपास कोई है जो अदृश्य रूप से उसके साथ साथ चलता है। कभी कोई सुगंध, कभी कोई स्पर्श, कभी कोई ध्वनि सुनाई दे सकती है, जिसका पता आसपास के किसी आदमी को नहीं लगेगा, उनका कोई वास्तविक कारण प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देगा। इसके बाद जब यह अभ्यास दृढ हो जाता है तो शरीर का कोई अंग तेजी से अपने आप हिलना, रोकने की कोशिश करने पर भी नहीं रुकना और उस समय एक आनंद बना रहना, इस प्रकार के अनुभव होते हैं। तब साधक यह सोचता है कि यह क्या है? कहीं साधना में कुछ गलत तो नहीं हो रहा। यह किसी दैवीय शक्ति का प्रभाव है या आसुरी शक्ति का? तो इसका उत्तर है कि यदि दांया अंग हिले तो समझना चाहिए कि दैवीय शक्ति का प्रभाव है और यदि बांया अंग हिले तो समझना चाहिए कि आसुरी शक्ति का प्रभाव है और वह शरीर में प्रवेश करना चाहती है। साथ ही यदि एक आनंद बना रहे तो समझें कि दैवीय शक्ति प्रवेश करना चाहती है। किन्तु यदि क्रोध से आँखें लाल हो जाएँ, मन में बेचैनी जैसी हो तो समझना चाहिए कि आसुरी शक्ति है। इस प्रकार जब पहचान हो जाए तो यदि आसुरी शक्ति हो तो उसे बलपूर्वक रोकना चाहिए। इसके लिए भगवान् व गुरु से प्रार्थना करें कि वह इस आसुरी शक्ति से हमारी रक्षा करें व उसे सदा के लिए हमसे दूर हटा दें। यदि दैवीय शक्ति है तो आपको प्रयत्न करने पर शीघ्र ही यह पता लग जाएगा कि वे कौन हैं और आगे आपको क्या करना चाहिए।

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