Navratri special नवरात्रि विशेष 2023

नवरात्रि विशेष Navratri special 

नवरात्रि छः महिने के अंतराल के साथ वर्ष में दो बार मनाई जाती है, जिसे चैत्र नवरात्रि तथा शारदीय नवरात्रि के नाम से जाना जाता है। नवरात्रि को नवदुर्गा या नौदुर्गा के अन्य नाम दुर्गा पूजा, वसंत नवरात्रि, महानवरात्रि, राम नवरात्रि, राम नवमी, नवरात्रे, नौरात्रे, Navratri special नाम से भी जाना जाता है।

navratri special 2023
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जब मां दुर्गा हाथी पर सवार होकर आती हैं, तो यह बेहद शुभ माना जाता है. वहीं, माता के गमन की बात करें तो इस वर्ष सोमवार के दिन माता की विदाई होगी. इसका मतलब है कि माता का गमन भैंसे पर होगा, जो अशुभ माना जाता है. भैंसे की सवारी पर माता रानी के जाने का संकेत देता है कि देश में शोक और रोग बढ़ेगा.
पूरे 9 दिन मां भगवती के अलग-अलग स्वरूपों की पूजा की जाती है। इस बार देवी दुर्गा हाथी पर सवार होकर अपने भक्तों से मिलने आएंगी। आपको बता दें कि हर साल नवरात्रि पर माता रानी का वाहन अलग-अलग होता है।
हाथी वाहन का महत्व देवी भागवत पुराण के मुताबिक, देवी दुर्गा का हाथी पर आगमन अत्यंत शुभ माना जाता है। हाथी वाहन धन-धान्य और सुख-समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। ऐसे में इस साल माता रानी अपने साथ ढेरों खुशियां लेकर आ रही हैं। मान्यताओं के अनुसार, जब भी मां दुर्गा हाथी पर सवार होतक धरती पर आती हैं उस साल देश में खूब वर्षा होती है। देश में धन-धान्य और समृद्धि में बढ़ोतरी होती है। धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, जब भी नवरात्रि का पहला दिन रविवार या सोमवार को पड़ता है तो देवी मां का वाह हाथी रहता है। मालूम हो कि मां दुर्गा का वाहन शेर है लेकिन नवरात्रि Navratri special पर माता रानी अलग-अलग वाहनों पर सवार होकर आती हैं।

नवरात्रि Navratri special छः महिने के अंतराल के साथ वर्ष में दो बार मनाई जाती है, जिसे चैत्र नवरात्रि तथा शारदीय नवरात्रि के नाम से जाना जाता है। नवरात्रि को नवदुर्गा या नौदुर्गा के अन्य नाम दुर्गा पूजा, वसंत नवरात्रि, महानवरात्रि, राम नवरात्रि, राम नवमी, नवरात्रे, नौरात्रे, नाम से भी जाना जाता है।

शारदीय नवरात्रि 15 अक्टूबर 2023 से 23 अक्टूबर 2023 तक हैं।

नवरात्रि– नवरात्रि नौ दिनों तक चलने वाला व्रत, पूजा एवं मेलों का उत्सव है, सभी नौ दिन माँ आदिशक्ति के भिन्न-भिन्न रूपों की पूजा करते हैं। देवी का प्रत्येक रूप,एक नवग्रह (चंद्रमा, मंगल, शुक्र, सूर्य, बुद्ध, गुरु, शनि, राहू, केतु) की स्वामिनी तथा उनसे जुड़ी बाधाओं को दूर व उन्हें प्रबल करने हेतु भी पूजा होती है।

नवरात्रि के नौ दिन बेहद शुभ होते हैं और पूजा-पाठ करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है जानें ज्योतिष एवं वास्तु के अनुसार कलश स्थापना का शुभ मुहूर्त, नियम और महत्व।

शारदीय नवरात्र आश्विन माह में मनाया जाता है पूरे 9 दिनों तक मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा अर्चना की जाती है। नवरात्रि की शुरूआत तिथि चैत्र /अश्विन शुक्ल प्रतिपद से होती है इस दौरान व्रत,हवन,जागरण,जगराता, माता का भजन कीर्तन इत्यादि किया जाता है। हिंदू धर्म में नवरात्रि त्यौहार का खास महत्व रखता है इस दौरान माता दुर्गा की विधि-विधान से पूजा अर्चना और व्रत करते हैं और दसवें दिन दशहरा पर्व भी मनाया जाता है नवरात्रि के प्रथम दिन कलश स्थापना करने का भी विशेष महत्व, लाभ और कुछ नियम होते हैं शुभ मुहूर्त को देखकर ही कलश स्थापना की करनी चाहिए मान्यता है कि कलश स्थापना करने से मां दुर्गा प्रसन्न होकर सभी भक्तों की मनोकामना पूर्ण करती हैं और उन पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखती हैं।

इस वर्ष कलश स्थापना के लिए शुभ मुहूर्त 15 अक्टूबर को प्रातः 11:38 से दोपहर 12:23 बजे तक है इस समय अभिजीत मुहूर्त है, जो पूजा पाठ के लिए शुभ माना जाता है।

नवरात्रि के शुभारंभ पर कलश स्थापना का विधान है. माना जाता है कि शुभ मुहूर्त में विधि-विधान से स्थापित किया गया कलश सुख, संपन्नता और आरोग्य लेकर आता है. कलश मिट्टी, सोना, चांदी या तांबा का होना चाहिए। लोहे या स्टील का कलश प्रयोग नहीं करना चाहिए।

नवरात्रि के पहले दिन कलश की स्थापना घर की पूर्व या उत्तर दिशा में करनी चाहिए। इसके लिए कलश स्थापना वाली जगह को गंगा जल से शुद्ध करके वहां हल्दी से चौक पूरते हुए अष्टदल बनाना चाहिए।

कलश में शुद्ध जल लेकर हल्दी, अक्षत, लौंग, सिक्का, इलायची, पान और पुष्प डालने के बाद कलश के बाहर रोली से स्वास्तिक बनाया जाना चाहिए. इसके बाद, कलश को पवित्र की गई जगह पर स्थापित करते हुए मां भगवती का आह्वान करना चाहिए।

नवरात्रि पर कलश स्थापना किए बिना पूजा अधूरी मानी जाती है नवरात्रि की शुरुआत बिना कलश स्थापना के नहीं होती है मां दुर्गा की विधि-विधान से आराधना करने के लिए कलश स्थापना का विशेष महत्व है इसे ही घटस्थापना भी कहा जाता है माना जाता है कि यदि गलत मुहूर्त पर घटस्थापना की जाए तो इससे मां दुर्गा अत्यंत क्रोधित हो सकती हैं रात के समय और अमावस्या पर कभी भी कलश की स्थापना नहीं करनी चाहिए। कलश स्थापना करने से ही पूजा सफल मानी जाती है शुभ फल की प्राप्ति होती है घर में सुख-समृद्धि आती है और इस वर्ष माता भगवती हाथी पर सवार होकर पृथ्वी पर आएंगी जो कि शुभ संकेत है।

!! शारदीय नवरात्रि तिथियां एवं महत्व!!

15 अक्टूबर 2023 – प्रतिपदा तिथि, पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाएगी, कलश स्थापना।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ शैलपुत्री रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

इन्हें हेमावती तथा पार्वती के नाम से भी जाना जाता है।

तिथि – चैत्र /अश्विन शुक्ल प्रतिपदा।
सवारी – वृष, सवारी वृष होने के कारण इनको वृषारूढ़ा भी कहा जाता है।
अस्त्र-शस्त्र – दो हाथ- दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का फूल धारण किए हुए हैं।
मुद्रा – माँ का यह रूप सुखद मुस्कान और आनंदित दिखाई पड़ता है।
ग्रह – चंद्रमा – माँ का यह देवी शैलपुत्री रूप सभी भाग्य का प्रदाता है, चंद्रमा के पड़ने वाले किसी भी बुरे प्रभाव को नियंत्रित करती हैं।
शुभ रंग – चैत्र – स्लेटी / अश्विन – सफ़ेद।

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16 अक्टूबर 2023 – द्वितीया तिथि, दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाएगी।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

माता ने इस रूप में फल-फूल के आहार से 1000 साल व्यतीत किए, और धरती पर सोते समय पत्तेदार सब्जियों के आहार में अगले 100 साल और बिताए। जब माँ ने भगवान शिव की उपासना की तब उन्होने 3000 वर्षों तक केवल बिल्व के पत्तों का आहार किया। अपनी तपस्या को और कठिन करते हुए, माँ ने बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिया और बिना किसी भोजन और जल के अपनी तपस्या जारी रखी, माता के इस रूप को अपर्णा के नाम से जाना गया।

तिथि– चैत्र /अश्विन शुक्ल द्वितीया
अन्य नाम – देवी अपर्णा
सवारी – नंगे पैर चलते हुए।
अस्त्र-शस्त्र – दो हाथ- माँ दाहिने हाथ में जप माला और बाएं हाथ में कमंडल धारण किए हुए हैं।
ग्रह – मंगल, सभी भाग्य का प्रदाता मंगल ग्रह।
शुभ रंग – चैत्र – नारंगी /अश्विन – लाल

 

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17 अक्टूबर 2023 – तृतीया तिथि, तीसरे दिन मां चंद्रघंटा की पूजा का शुभ दिन।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

यह देवी पार्वती का विवाहित रूप है। भगवान शिव से शादी करने के बाद देवी महागौरी ने अर्ध चंद्र से अपने माथे को सजाना प्रारंभ कर दिया और जिसके कारण देवी पार्वती को देवी चंद्रघंटा के रूप में जाना जाता है। वह अपने माथे पर अर्ध गोलाकार चंद्रमा धारण किए हुए हैं। उनके माथे पर यह अर्ध चाँद घंटा के समान प्रतीत होता है अतः माता के इस रूप को माता चंद्रघंटा के नाम से जाना जाता है।

तिथि – चैत्र /अश्विन शुक्ल तृतीया
सवारी – बाघिन
अस्त्र-शस्त्र – दस हाथ – चार दाहिने हाथों में त्रिशूल, गदा, तलवार और कमंडल तथा वरण मुद्रा में पाँचवां दाहिना हाथ। चार बाएं हाथों में कमल का फूल, तीर, धनुष और जप माला तथा पांचवें बाएं हाथ अभय मुद्रा में।
मुद्रा – शांतिपूर्ण और अपने भक्तों के कल्याण हेतु।
ग्रह – शुक्र
शुभ रंग – चैत्र – सफेद /अश्विन – गहरा नीला।

 

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 18 अक्टूबर 2023 – चतुर्थी तिथि यानी चौथे दिन की जाएगी मां कुष्मांडा की पूजा।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

कु का अर्थ है कुछ, ऊष्मा का अर्थ है ताप, और अंडा का अर्थ यहां ब्रह्मांड अथवा सृष्टि, जिसकी ऊष्मा के अंश से यह सृष्टि उत्पन्न हुई वे देवी कूष्माण्डा हैं। देवी कूष्माण्डा, सूर्य के अंदर रहने की शक्ति और क्षमता रखती हैं। उसके शरीर की चमक सूर्य के समान चमकदार है। माँ के इस रूप को अष्टभुजा देवी के नाम से भी जाना जाता है।

तिथि– चैत्र /अश्विन शुक्ल चतुर्थी
अन्य नाम – अष्टभुजा देवी
सवारी – शेरनी
अस्त्र-शस्त्र – आठ हाथ – उसके दाहिने हाथों में कमंडल, धनुष, बाड़ा और कमल है और बाएं हाथों में अमृत कलश, जप माला, गदा और चक्र है।
मुद्रा – कम मुस्कुराहट के साथ।
ग्रह – सूर्य – सूर्य को दिशा और ऊर्जा प्रदाता।
शुभ रंग – चैत्र – लाल / अश्विन – पीला।

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19 अक्टूबर 2023 – पंचमी तिथि, पांचवें दिन होगी मां स्कंदमाता की पूजा।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ स्कन्दमाता रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

जब देवी पार्वती भगवान स्कंद की माता बनीं, तब माता पार्वती को देवी स्कंदमाता के रूप में जाना गया। वह कमल के फूल पर विराजमान हैं, और इसी वजह से स्कंदमाता को देवी पद्मासना के नाम से भी जाना जाता है। देवी स्कंदमाता का रंग शुभ्र है, जो उनके श्वेत रंग का वर्णन करता है। जो भक्त देवी के इस रूप की पूजा करते हैं, उन्हें भगवान कार्तिकेय की पूजा करने का लाभ भी मिलता है। भगवान स्कंद को कार्तिकेय के नाम से भी जाना जाता है।

तिथि – चैत्र /अश्विन शुक्ल पञ्चमी
अन्य नाम – देवी पद्मासना
सवारी– उग्र शेर
अस्त्र-शस्त्र – चार हाथ – माँ अपने ऊपरी दो हाथों में कमल के फूल रखती हैं है। वह अपने एक दाहिने हाथ में बाल मुरुगन को और अभय मुद्रा में है। भगवान मुरुगन को कार्तिकेय और भगवान गणेश के भाई के रूप में भी जाना जाता है।
मुद्रा – मातृत्व रूप
ग्रह– बुध
शुभ रंग– चैत्र – गहरा नीला / अश्विन – हरा।

 

 

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 20 अक्टूबर 2023 – षष्ठी तिथि पर की जाती है मां कात्यायनी की पूजा-आराधना।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कात्यायनी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

माँ पार्वती ने राक्षस महिषासुर का वध करने के लिए देवी कात्यायनी का रूप धारण किया। यह देवी पार्वती का सबसे हिंसक रूप है, इस रूप में देवी पार्वती को योद्धा देवी के रूप में भी जाना जाता है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार देवी पार्वती का जन्म ऋषि कात्या के घर पर हुआ था और जिसके कारण देवी पार्वती के इस रूप को कात्यायनी के नाम से जाना जाता है।

तिथि – चैत्र /अश्विन शुक्ल षष्ठी
सवारी – शोभायमान शेर
अस्त्र-शस्त्र – चार हाथ – बाएं हाथों में कमल का फूल और तलवार धारण किए हुए है और अपने दाहिने हाथ को अभय और वरद मुद्रा में रखती है।
मुद्रा – सबसे हिंसक रूप
ग्रह – गुरु
शुभ रंग – चैत्र – पीला /अश्विन – स्लेटी।

 

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21 अक्टूबर 2023 – सातवें दिन, सप्तमी तिथि पर होगी मां कालरात्रि की पूजा।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

जब देवी पार्वती ने शुंभ और निशुंभ नाम के राक्षसों का वध लिए तब माता ने अपनी बाहरी सुनहरी त्वचा को हटा कर देवी कालरात्रि का रूप धारण किया। कालरात्रि देवी पार्वती का उग्र और अति-उग्र रूप है। देवी कालरात्रि का रंग गहरा काला है। अपने क्रूर रूप में शुभ या मंगलकारी शक्ति के कारण देवी कालरात्रि को देवी शुभंकरी के रूप में भी जाना जाता है।

तिथि –चैत्र /अश्विन शुक्ल सप्तमी
अन्य नाम – देवी शुभंकरी
सवारी – गधा
अस्त्र-शस्त्र – चार हाथ – दाहिने हाथ अभय और वरद मुद्रा में हैं, और बाएं हाथों में तलवार और घातक लोहे का हुक धारण किए हैं।
मुद्रा–देवी पार्वती का सबसे क्रूर रूप
ग्रह– शनि
शुभ रंग– चैत्र – हरा / अश्विन – नारंगी।

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22 अक्टूबर 2023 – आठवां दिन, दुर्गा अष्टमी पर मां महागौरी की भक्त करेंगे पूजा-उपासना।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ महागौरी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, सोलह साल की उम्र में देवी शैलपुत्री अत्यंत सुंदर थीं। अपने अत्यधिक गौर रंग के कारण देवी महागौरी की तुलना शंख, चंद्रमा और कुंद के सफेद फूल से की जाती है। अपने इन गौर आभा के कारण उन्हें देवी महागौरी के नाम से जाना जाता है। माँ महागौरी केवल सफेद वस्त्र धारण करतीं है उसी के कारण उन्हें श्वेताम्बरधरा के नाम से भी जाना जाता है।

तिथि – चैत्र /अश्विन शुक्ल अष्टमी
अन्य नाम– श्वेताम्बरधरा
सवारी– वृष
अस्त्र-शस्त्र –चार हाथ – माँ दाहिने हाथ में त्रिशूल और अभय मुद्रा में रखती हैं। वह एक बाएं हाथ में डमरू और वरदा मुद्रा में रखती हैं।
ग्रह– राहू
मंदिर– हरिद्वार के कनखल में माँ महागौरी को समर्पित मंदिर है।
शुभ रंग – चैत्र – मोर हरा /अश्विन – मोर वाला हरा।

 

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23 अक्टूबर 2023 – महा नवमी यानी नौवें दिन शरद नवरात्रि,व्रत पारण, कन्या पूजन, महागौरी पूजन और मां सिद्धिदात्री की पूजा

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

शक्ति की सर्वोच्च देवी आदि-पराशक्ति, भगवान शिव के बाएं आधे भाग से सिद्धिदात्री के रूप में प्रकट हुईं। माँ सिद्धिदात्री अपने भक्तों को सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करती हैं। यहां तक कि भगवान शिव ने भी देवी सिद्धिदात्री की सहायता से अपनी सभी सिद्धियां प्राप्त की थीं। माँ सिद्धिदात्री केवल मनुष्यों द्वारा ही नहीं बल्कि देव, गंधर्व, असुर, यक्ष और सिद्धों द्वारा भी पूजी जाती हैं। जब माँ सिद्धिदात्री शिव के बाएं आधे भाग से प्रकट हुईं, तब भगवान शिव को अर्ध-नारीश्वर का नाम दिया गया। माँ सिद्धिदात्री कमल आसन पर विराजमान हैं।

अष्ट(8) सिद्धियां: अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व।
तिथि: चैत्र /अश्विन शुक्ल नवमी
आसन– कमल
अस्त्र-शस्त्र – चार हाथ – दाहिने हाथ में गदा तथा चक्र, बाएं हाथ में कमल का फूल व शंख शोभायमान है।
ग्रह– केतु
शुभ रंग– चैत्र – बैंगनी / अश्विन – गुलाबी।

 

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24 अक्टूबर 2023 – दशमी तिथि पर विजयादशमी (दशहरा), मां दुर्गा प्रतिमा विसर्जन।

 

नवरात्रि दिवस पर आप सभी मित्रों को सपरिवार सहित बहुत बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं

7 चक्र- 7 Chakra कौन से हैं व उन्हें जागृत कैसे करे

हमारे शरीर में मौजूद सात चक्र कौन से हैं व उन्हें जागृत करने से कौन सी सिद्धियां प्राप्त होती हैं?

महर्षि व्यास ने महाभारत लिखते लिखते एक अत्यन्त गुह्य रहस्य को प्रकट कर दिया है वे लिखते हैं-

गुह्य व्रत्याँ तदिदं ब्रवीमि।

नहि मनुष्यात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्।’

एक गुप्त रहस्य बताता हूँ। मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठतर इस संसार में और कुछ नहीं है।

 

 

7 चक्र
7 चक्र

जिन देवताओं से वह तरह तरह के वरदान पाने की मनुहार करता है वे वस्तुतः उसी की श्रद्धा एवं विश्वास के छैनी हथौड़े से गढ़े हुए मानस पुत्र हैं। ‘भावो हि विद्यते देव’ की उक्ति से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पत्थर के टुकड़े को देवता के समतुल्य समर्थ बना देने वाला चमत्कार भावना के आरोपण से ही सम्भव होता है। उसे उठा लिया जाय तो देव प्रतिमा में पत्थर के अथवा धातु खण्ड के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मनुष्य देवताओं को गढ़ता है और स्वयं भी देवता बनता है- भजन्ते विश्वे देवत्वं नामऋर्त सर्पन्तो अमृत मेवैः। -ऋग्वेद

ईश्वर का अविनाशी अंश होने के कारण आत्मा के देव मन्दिर-इसी शरीर में समस्त देवताओं की बीज माताएँ विद्यमान हैं। अंग प्रत्यंगों में उच्चस्तरीय श्रेष्ठता विद्यमान है। उपेक्षा एवं अवज्ञा के कारण वे मूर्छित स्थिति में मृतक तुल्य पड़े हैं। उन्हें जगाने का प्रयास योग और तप द्वारा किया जाता है। अपने भीतर देवसत्ता के विद्यमान होने का प्रसंग इस प्रकार आया है-

ता एता देवताः सृष्टा अस्मिन् महर्त्यणवे प्रापतंस्तमशनायापिपासाभ्यामन्बवार्जत् ता एनमब्रु वन्ना यतनै नः प्रजानीहि यस्मिन् प्रतिष्ठता अन्नमदा मेति॥1॥

ताभ्यो गामानयता अब्रु वत्र वै नोउयमलमिति ताभ्योअश्वमानयत्ता अब्रु वत्र वै नोअयमलमिति॥2॥

ताभ्यः पुरुषमानयता अब्रु वन् सुकृतं बतेति। सुरुषोबाव सकृतम्। ता अब्रवीद्यथायतनं प्रविशतेति॥3॥

अग्निर्वाग्भूत्वाँ मुखं प्राविशद्वायुः प्राणों भूत्वा नासिके प्राविशंदादित्यश्चक्षूर्भू त्वाक्षिणी प्राविशद्दिशः श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशंश्चंद्रमा मनो भूत्वा ह्नदयं प्राविशन्मृत्युरपाना भूत्वा नाभि प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशन्-एतरेय 2।1 से 4

परमात्मा ने देवताओं को इस संसार में भेजा। उनमें भूख, प्यास और अनुभूति उत्पन्न की। देवताओं ने परमात्मा से कहा- हमारे लिए शरीर निर्माण करो। जिसमें रहकर हम अपनी आवश्यकताएँ पूर्ण करें। परमात्मा ने उन्हें गौ, अश्व आदि के शरीर दिखाये, जिसे उन्होंने अनुपयुक्त बताया। तब परमात्मा ने उन्हें मनुष्य देह दिखायी। देवताओं ने कहा-हाँ यही बहुत ठीक और सुन्दर है। तब परमात्मा ने कहा-अपने अपने उपयुक्त स्थानों में घुल जाओ । तब अग्नि वाणी बनकर मुख में, वायु प्राण बनकर नासिका में, सूर्य ज्योती बनकर नेत्रों में, दिशाएँ कानों में, वनस्पति औषधि बनकर त्वचा में, चन्द्रमा मन बनकर हृदय में, स्वयं अपान बनकर नाभि में और वरुण रेतस् बनकर जननेन्द्रियों में प्रविष्ट हुआ।

पुरुषों वान गौतमाग्निस्तिस्य वागेव समित्प्राणी धूमो जिहार्चिश्वक्षुरड्ऱाराः श्रोत्रं विस्फुलिंगा।

तस्मिन्नेतस्मित्रग्नो देवा अत्रं जुहति तस्या आहुते रेतः सम्भवति।

यह पुरुष की अग्नि है। वाणी समिधा है। प्राण धुँआ है। जिव्हा ज्वाला है। नेत्र अंगार है। कान चिनगारियाँ। इस अग्नि में देवगण हवन करते हैं और उससे पराक्रम उत्पन्न होता है।

देहेडस्मिन् वर्तते मेरुःसप्तदीप सन्वितः।

सरितः सागरःशैलाःक्षेत्राणि क्षेत्रपालकः॥

ऋषियोँ मुनयः सर्वे नक्षत्राणि प्रहास्तथा।

पण्यतीर्थानि पोठानि वर्तन्ते पीठ देवताः॥

इसी शरीर में सप्त दीपों सहित सुमेरु पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पर्वत शिखर, क्षेत्र, क्षेत्रपाल, ऋषि-मुनि समस्त नक्षत्र-ग्रह पुण्य तीर्थ, पीठ और उन पीठों के देवता सभी विद्यमान हैं।

मानवी संकल्प शक्ति की क्षमता असीम है। उसको जागृत करना और सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त कर रखना सम्भव हो सके तो कुछ भी बन सकना और कुछ भी कर सकना सम्भव हो सकता है।

फलं ददाति कालेन तस्य मस्य तथा तथा।

तपोवा देवता वापि भूत्वा स्वैव चिदन्यथा।

फलं ददात्यथ स्वैरं नभः फल निपातवत् -योगवासिष्ठ

जीव अपनी इच्छा से ही देवता, तपस्वी बनता रहता है। प्रगति और अवनति का आधार मनुष्य का अपना कर्तृत्व ही है।

यह विधि की विडम्बना ही है कि आँख आदि इन्द्रियों के छिद्र बाहर की ओर बनाये। वे बाहर का तो बहुत कुछ देखती है, पर आन्तरिक सम्पदा को समझने उसका सदुपयोग करने से वंचित ही रह जाती है। हमारी बुद्धि जीवन के स्वरूप, लक्ष्य एवं उपयोग को जानने में असमर्थ रहती है।

पराञिच खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्तस्माद्

पराड्पश्यति नान्तरात्मन्।

कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मान मैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्॥

विधाता ने छेदों को बाहर की ओर छेदा (अर्थात् इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया) अतएव मनुष्य बाहर ही देखता है। अन्तर को नहीं देखता। अमृत की आकांक्षा करने वाला दूरदर्शी बिरला मनुष्य ही अन्दर की ओर देखता है।

गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में सप्त चक्रों का जागरण प्रमुख है। यह सप्त चक्र और पंचकोश परस्पर सम्बद्ध हैं। दोनों की साधना एक साथ ही सम्पन्न होती है। इसी में देव-साधना-ऋषि उपासना, समग्र उत्कर्ष जीवन-लक्ष्य सर्वतोमुखी विकास उल्लास के समस्त तत्वों का समावेश है। कहा गया है-

मूलादि ब्रह्म रंध्रान्ता गीयते मननात् यतः।

मननात् त्राति षट्चक्र गायत्री तेन कथ्यते-तन्त्र कौमुदी

मूलाधार से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक विस्तृत षट्चक्र को जिसके आह्वान से जागरण होता है उसे गायत्री कहते हैं।

आत्मसत्ता में सन्निहित विश्व की समस्त विभूतियों को यदि खोजा और जगाया जा सके तो जीवात्मा को देवात्मा एवं परमात्मा बनने का अवसर मिल सकता है। इस अन्वेषण प्रयास को ब्रह्म विद्या और जागरण प्रक्रिया को ब्रह्मतेज सम्पादन कहते हैं। इस सन्दर्भ में सप्तऋषियों को जीवन्त करने और उनके ब्रह्म-बल से उच्चकोटि का लाभ उठाने की प्रक्रिया चक्रबेधन’ के रूप में समझी जा सकती है।

सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे,

सप्त रक्षन्ति सर्व अप्रमादम्-यजु

शरीर में सप्त ऋषि निवास करते हैं। वे सतर्कतापूर्वक निरन्तर उसकी रक्षा करते हैं।

परमात्मा अध्यात्मवेत्ता चेतना के सात शरीर मानते हैं। एक प्रत्यक्ष छः अप्रत्यक्ष।

(1) भौतिक शरीर को वे फिजीकल बॉडी कहते हैं। (2) सूक्ष्म शरीर एस्ट्रल बॉडी (3) मनस् शरीर – मेन्टल बॉडी (4) आत्म शरीर स्प्रिचुअल बॉडी (5) ब्रह्म शरीर- कास्मिक बॉडी (6) निर्वाण शरीर इसे वे शरीर कहते हुए भी आत्मसत्ता कहते हैं और शरीर न कहकर वीइंग एण्ड नान वीइंग की संज्ञा देते हैं। यह अनिवर्चनीय जैसा शब्द है।

(1) मूलाधार (2) स्वाधिष्ठान (3) मणिपुर (4) अनाहत (5) विशुद्ध (6) आज्ञाचक्र यह षट्चक्र वर्ग में आते हैं। सातवाँ सहस्रार इनका अधिपति एक सूत्र संचालक है। मानवी काया में अवस्थित यही परम तेजस्वी सप्त ऋषि है । जिनकी पीठ पर- जिनके समर्थन में-सात ऋषि होंगे उन्हें किसी प्रकार का अभाव अनुभव न होगा। निद्रित स्थिति में तो मनुष्य भी मृत तुल्य पड़ा रहता है। ऋषियों का अस्तित्व आत्मसत्ता के अंतर्गत होते हुए भी यदि वे प्रस्तुत स्थिति में पड़े हैं तो उनका समुचित लाभ मिल सकना सम्भव न होगा।

आत्मसूर्य के सप्त अश्व प्रमुख चेतना केन्द्रों के रूप में वर्णन किये गये है- (1) प्राण (2) ऋषि (3) जिव्हा (4) त्वचा (5) कान (6) मन (7) बुद्धि इन सातों को अश्व संज्ञा दी गई है।

दिव्य जीव सत्ता में इन सातों का वर्णन इस प्रकार मिलता है (1) देव (2) ऋषि (3) गंधर्व (4) पत्रक (5) अप्सरा (6) यक्ष (7) राक्षस। वैदिक देवताओं में इन्हीं का दूसरे रूप में वर्णन है- (1) प्रजापति (2) अर्यमा (3) पूषा (4) त्वष्टा (5) वरुण (6) इन्द्र (7) मित्र। छंद शास्त्र की दृष्टि से इनका उल्लेख जिन सात छन्दों में किया गया है वे (1) गायत्री (2) उष्णिक् (3) अनुष्टुप् (4) वृहती (5) पंक्ति (6) त्रष्टुप (7) जगती है।

गान विद्या के सप्त स्वर प्रसिद्ध है- सा, रे, ग, म, प, ध, नि के नाम से इन्हें संगीत शास्त्र के आरम्भिक छात्र भी जानते हैं। सूर्य की सात किरणें (1) बैगनी (2) जामुनी (3) नीले (4) हरे (5) पीले (6) नारंगी (7) लाल रंग की है। इन्हीं रंग के प्रभाव से पदार्थों और प्राणियों में तरह-तरह के उभार, उतार चढ़ाव आते रहते हैं।

आयुर्वेद के अनुसार अपने प्रत्यक्ष शरीर में सप्त धातुएँ है।- (1) रस (2) रक्त (3) माँस (4) मज्जा (5) अस्थि (6) भेद (7) शुक्र। इन्हीं के सहारे काया का क्रिया-कलाप चलता है। सूक्ष्म शरीर का ढाँचा भी सात आधारों पर ही खड़ा है। (1) पाँच तत्व (2) पाँच प्राण (3) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (4) पाँच कर्मेन्द्रियाँ (5) पाँच तन्मात्राएँ (6) अन्तः करण चतुष्टय (7) आकांक्षा संस्कार ।

7 चक्र
7 चक्र

 

 

स्थूल शरीर के आधारों को प्रत्यक्ष आँखों से देखा जा सकता है। सूक्ष्म शरीर के आधार भी सूक्ष्म होते हैं। अस्तु वे दृष्टिगोचर तो नहीं होते, पर अस्तित्व उन सब का बना रहता है। भाप बनकर आकाश में उड़ जाने पर भी पदार्थ बना ही रहता है, पर उसका अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं होता। सूक्ष्म शरीर की सत्ता भूत-प्रेतों के रूप मे, स्वप्न में, छाया पुरुष में, स्वर्ग-नरक भाजन में स्थूल शरीरधारियों की तरह ही काम करती है, पर उसका अस्तित्व स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर नहीं होता। दिव्यात्माएँ भी ऐसा ही सुहुम कलेवर धारण करके इतना काम करती है जो स्थूल शरीर की तुलना में अत्यधिक होता है।

षट्चक्रों का नाम भ्रामक है। वस्तुतः उन्हें सप्तचक्र ही कहना चाहिए। सहस्रार को इन चक्र शृंखला से अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक चक्र भी सात आधारों से बना है। उनके स्वरूप निर्धारणों की जो व्याख्या विवेचना है उसमें प्रत्येक के सात-सात विवरण दिये गये है- (1) तत्व-बीज (2) वाहन (3) अधिदेवता (4) दल (5) यन्त्र (6) शब्द (7) रंग। इन्हीं विशेषताओं की भिन्नता से उनके अलग-अलग विभेद किये गये है। अन्यथा बाहर से तो उनकी आकृति एक जैसी ही है। उनकी क्षमताओं, विशेषताओं और प्रतिक्रियाओं का विवरण इन्हीं सात संकेतों के रूप में समझा जा सकता है।

शरीर एक समूचा ब्रह्माण्ड है। जो कुछ इस विस्तृत ब्रह्माण्ड में है उसे बीज रूप में मानवी पिण्ड में सँजो दिया गया है। साधना द्वारा इन बीजों को अंकुरित और पल्लवित किया जाता है। ब्रह्माण्ड और पिण्ड की सत्ता एक जैसी बताते हुए कहा गया है।

ब्रह्माण्ड संज्ञके देहे यथा देहं व्यवस्थितः -शिव संहिता

यह शरीर ब्रह्माण्ड संज्ञक है। जो ब्रह्माण्ड में है वही इस शरीर में भी मौजूद है।

नदी, पर्वत, समुद्र, द्वीप आदि भी सात सात ही गिनाये गये है। भूगोल के हिसाब से इनकी संगति नहीं बैठती। संसार में हजारों नदियाँ हैं इसी प्रकार पर्वत भी सैकड़ों हैं। पृथ्वी पर महाद्वीप पाँच हैं। छोटे द्वीपों की संख्या तो लाखों तक पहुँचेगी। समुद्र भी सात कहाँ है। इस प्रकार भौगोलिक गणना के आधार पर यह ब्रह्माण्ड विवरण सही नहीं बैठता। किन्तु पिण्ड ब्रह्माण्ड की प्रमुख शक्तियों को इन रूपकों के माध्यम से समझाने वाले अलंकारित संकेत का रहस्य समझा जा सके तो यह सभी सप्तक सही बैठते हैं।

सात पर्वत यही हैं- (1) बिद्रुम (2) हिमिशैल (3) घुतिमान (4) पुष्पवान (5) कुशेशय (6) हरिशैल (7) मन्दराचल।

सात नदियों के नाम हैं- (1) जलधर (2) टैबत (3) श्यामक (4) उद्रक (5) अम्बिकेय (6) रभ्य (7) केशरी।

सात चक्रों की सप्त अग्नियाँ तथा सात सोम संस्थाओं के रूप में भी वर्णन हुआ है। सोम संस्थाओं के नाम ब्रह्माण्ड ग्रन्थों में इस प्रकार गिनाये गये है- (1) आत्माग्नि स्टोम (2) उष्टवक्य (3) थोडसी (4) वाजपेयक (5) अति रात (6) आप्त (7) याम।

अग्नि पुराण में सात चक्र यज्ञ एवं सात हविश यज्ञों का वर्णन है। चक्र यज्ञ हैं (1) पुरोष्टक (2) पार्यण (3) श्रावणी (4) अग्रहायणी (5) चैत्र (6) अश्व (7) युजी

हविश यज्ञ भी सात है- (1) अग्न्याधेय (2) अग्निहोत्र (3) दर्श (4) पौर्णमास (5) चातुर्मास्य (6) आग्रहायण (7) निरुढ।

सात अग्नियाँ है- (1) ब्रह्माग्नि (2) आतग्नि (3) योगाग्नि (4) कालाग्नि (5) सूर्याग्नि (6) वैश्वानर (7) आतप।

मुण्डक उपनिषद् के अनुसार देव की सात जिह्वाएँ है।- (1) काली (2) कराली (3) मनोजबा (4) लोहिता (5) धूम्रवर्णा (6) स्फुल्लिगिनी (7) विश्वरुचि।

सात समुद्रों और सात द्वीपों के नाम मार्कण्डेय पुराण में इस प्रकार गिनाये गये हैं।

समुद्र- (1) लवण सागर (2) इक्षुसागर (3) सुरा सागर (4) दुग्ध सागर (5) दधि सागर (6) धूत सागर (7) जल सागर ।

द्वीप- (1) जम्बू द्वीप (2) प्लक्ष द्वीप (3) शाल्मलि द्वीप (4) कुश द्वीप (5) क्रौच द्वीप (6) शाक द्वीप (7) पुष्कर द्वीप।

इन सभी प्रतिपादनों में यह संकेत है कि हर स्तर की क्षमता बीज रूप में अपने भीतर विद्यमान है यदि उन्हें जागृत करने का प्रयत्न किया जाय तो व्यक्ति उच्चस्तरीय स्थिति तक निरन्तर बढ़ता चल सकता है और प्रगति के उच्चतम शिखर तक पहुँच सकता है। बीज का अस्तित्व और फल का परिणाम सुनिश्चित है। आवश्यकता उस कृषि कर्म की-बागवानी की रीति नीति जानने अपनाने की है जिसे अध्यात्म की भाषा में साधना कहते हैं।

प्राणायाम मन्त्र में गायत्री के साथ सात व्याहृतियों का प्रयोग होता है। भूः भुवः स्वः महः जनम् तपम् सत्यम्। यह सात व्याहृतियाँ है। इन्हें सात ऋषि एवं सात लोक भी कहा गया है।

अग्नि पुराण में सात ऋषियों के नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं।

वशिष्ठः काश्योडतथात्रिर्जमदग्निः स गौतमः विश्वामित्र भरद्वाजो मुनयः सप्त साम्प्रतम्।

(1) वशिष्ठ (2) काश्यप् (3) अत्री (4) जमदग्नि (5) गौतम (6) विश्वामित्र (7) भारद्वाज

इन सातों की सत्ता सप्त चक्रों में विद्यमान है। इन सातों की शक्ति इन्द्रियों के रूप में भी दृष्टिगोचर होती है।

प्राणः वा ऋषिः । इमौ एव गौतम भरद्वाजौ।

अयमेव गौतमः अयं भारद्वाज ।

इमौ एव विश्वामित्र जमदग्नि।

अयमेव विश्वामित्रः अयं जमदग्निः।

इमौ एव वशिष्ठ कश्यप अयमेव वशिष्ठः अयं कश्यपः। वागेवात्रिः-श्रुति

सात प्राण ही सात ऋषि हैं। दो कान गौतम और भारद्वाज हैं दो आँखें विश्वामित्र और जमदग्नि हैं। दो नासिका छिद्र वशिष्ठ और काश्यप् हैं। वाक् अत्रि हैं।

सात लोक आकाश में ढूँढ़ना व्यर्थ है। वे किसी ग्रह नक्षत्र के रूप में नहीं हैं।, वरन् आत्म सत्ता में सप्त चक्रों के रूप में ही उनका अस्तित्व है। कहा गया है।

मूलाधारे तु भूलोके स्वाधिष्ठाने भुव स्ततः स्वर्गलोके नाभि देशे च हृदयं तु महस्तथा। जन लोके कंठ देशे, लोक ललाटके। सत्य लोक महारन्ध्रे इति लोका पृथक् पृथक्। -महायोग विज्ञान

(1) भू लोक मूलाधार में (2) भुवः लोक स्वाधिष्ठान में (3) स्वः लोक नाभि स्थान में (4) महः लोक हृदय में (5) जल लोक कंठ में (6) तप लोक ललाट में (7) सत्य लोक ब्रह्मरंध्र में विद्यमान हैं जहाँ स्थान मात्र गिना दिये गये है वहाँ उन स्थानों में अवस्थित चक्रों का ही संकेत समझा जाना चाहिए।

उपनिषद् कार ने मानवी काया को ‘छः अरे’ एवं ‘सात चक्र’ लगा हुआ विलक्षण रथ कहा है- यह षट् चक्रों को सात चक्रों का ही संकेत है।

“ऊथेमे अन्य उपरे विलक्षणं सप्त चक्रे शब्दर आहुरर्पितम।

अन्य लोक उस विलक्षण को सात चक्र और दो अरों वाला कहते हैं।

पद्य पुराण में भागवत् माहात्म्य वर्णन सन्दर्भ में धुन्धकारी प्रेत की मोक्ष उस कथा श्रवण के फल स्वरूप होने का उल्लेख है। यह प्रेत बाँस की गाठों को फोड़ता हुआ नीचे से ऊपर चला था और गाठें तोड़कर प्रेत योनि से छूटा तथा परम पद का अधिकारी बना था। अध्याय 5 श्लोक 64 में यह बाँसों की गाँठ भेधे जाने का रहस्योद्घाटन करते हुए इसे यौगिक ग्रन्थि भेद बताया है। कहा गया है।

जडस्य शुष्क वंशस्य यत्र ग्रन्थि विभेदनम्।

चित्रं किमु तदा चित्त ग्रन्थिभेदः कथा श्रवात्॥

इसमें सूखे और जड़ बाँस की गाठें फटने का तात्पर्य चित की ग्रन्थियाँ खुलना बताया गया है।

भागवत् पुराण के स्कन्ध 2 अध्याय 2 के 19,2,21 श्लोकों में महर्षि शुक्राचार्य ने विहंगम मार्ग से ब्रह्मनिष्ठ योगियों के प्राण त्याग का विधान बताया है। इस में षट्चक्र वेधन विधान की ही प्रक्रिया है। छहों चक्रों का वेधन करते हुए अन्त में सहस्रार चक्र में प्राण को लय करते हुए प्राण त्याग करने की विधि समझाई गई है।

यह सप्त ऋषि जिस पर अनुग्रह करते हैं उन्हें सद्गुणों की सात विभूतियाँ प्रदान करते हैं। स्पष्ट है कि सद्गुण ही वे देव अनुग्रह हैं जिनके मूल्य पर भौतिक और आत्मिक, सम्पदाएँ सफलताएँ खरीदी जाती हैं। यह भ्रान्तियाँ निरस्त की जानी चाहिए कि उपासना के फलस्वरूप सीधी सम्पदाएँ मिलती हैं। सच्ची साधना के फलस्वरूप अन्तरंग में उत्कृष्टता उभरती है और सज्जनोचित सद्भावों का विस्तार होता है। बहिरंग के सत्प्रवृत्तियाँ सक्रिय होती हैं और क्रिया-कलापों में महामानवों जैसी प्रतिभा व्यवस्था एवं शालीनता की मात्रा बढ़ती है। जहाँ आत्मविकास का यह स्वरूप दृष्टिगोचर हो समझना चाहिए कि यहाँ सच्ची साधना की गई और उसके फलस्वरूप व्यक्तित्व निखरने के स्वरूप ही भौतिक और आत्मिक सफलताओं के-ऋद्धि-सिद्धि के रूप में वे प्रतिफल प्राप्त होते हैं जिनका माहात्म्य साधनाओं की सफलता के रूप में वर्णन किया गया है।

न देवा दण्ड मादाय रक्षनित पशुपाल वत्।

यस्तु रक्षितुमिच्छन्ति बुद्धया संयोजयन्तितम्-महाभारत

ग्वाला जिस प्रकार लाठी लेकर पशुओं की रक्षा करते हैं उस तरह देवता किसी की रक्षा नहीं करते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसकी बुद्धि को सन्मार्ग पर नियोजित कर देते हैं।

सप्त ऋषियों का अनुग्रह सात लोकों, सात द्वीपों, सात समुद्रों, सात पर्वतों, सात नदियों का स्वामित्व उपलब्ध होने के रूप में मिलता है। तात्पर्य यह हुआ कि ब्रह्माण्ड सत्ता को प्रतीक आत्मसत्ता पर अपना अधिकार आधिपत्य मिलता है। अपनी क्षमताओं को समझने, उन्हें उभारने और उपभोग करने का अर्थ कौशल प्राप्त होता है। जिसे यह सफलता मिल सकी समझाना चाहिए उसे ब्रह्माण्ड का आधिपत्य मिल गया।

सात यज्ञ, सात अग्नि, सात सोम आदि की उपासना से जो प्रतिफल मिलने बताये गये हैं उन्हें भी सात ऋषियों के वरदान समझना चाहिए जो अपने आत्मसत्ता के रूप में हिमालय में निरन्तर निवास और तप करते हैं। इन्हीं शक्ति धाराओं को साधना विज्ञान में सात चक्र कहा गया है, प्रत्येक चक्र प्रत्येक ऋषि का एक एक वरदान एक एक सद्गुण के रूप में प्राप्त होता है। वे ही ऋद्धि-सिद्धियों साथ में जीवन को देवमय बनाते हैं और स्वर्गीय उपलब्धियों से सुसम्पन्न करते हैं।

सात चक्रों के सात सद्गुण इस प्रकार है- (1) मूलाधार (2) स्वाधिष्ठान (काश्प्य) (3) मणिपुर (अत्रि) (4) अनाहत (जमदग्नि (5) विशुद्ध (गौतम) (6) आज्ञाचक्र (विश्वामित्र) (7) सहस्रार (भारद्वाज) उल्लास।

यों पौराणिक गाथाओं में ऋषि, व्यक्ति-विशेष थे। महामानवों के रूप में योग और तप में निरत-स्व पर कल्याण में संलग्न जीवनयापन करते हुए उनका वर्णन किया गया है। परमात्म विज्ञान में ऋषि तत्व जागृत एवं प्रखर प्राणसत्ता को कहा गया है। वे सूर्य के समान एक कहे जा सकते हैं। अथवा सप्त किरणों के रूप में उनके सात नाम दिये जा सकते हैं और सुविधा के लिए सात वर्गों में विभाजित करके सात व्याख्याएँ की जा सकती हैं। सृष्टि के आदि में जब जीवसत्ता प्रकट हुई तो उनका स्वरूप ‘ऋषि प्राण्’ के रूप में था। यह जीवात्मा का शुद्ध स्वरूप है। उसी स्थिति में पहुँचने पर आत्मा को देवात्मा एवं परमात्मा के रूप में परिष्कृत बनने का अवसर मिलता है। शत पथ में इस रहस्य का इस प्रकार उल्लेख हुआ है-

असद्वा इदमग्न आसीत् तदाहुः

कि तदसदासी दित्यृष्यों,

वा व ते ड में उ सदासीतु तदाहुः

के ते ऋषय इति, प्राणा बा ऋषय -शतपथ

पहले सृष्टि से पूर्व में यह असत् था। तब कहा- यह असत् क्या था? उत्तर- वे ऋषि ही थे। वे सृष्टि से पूर्व में असत थे। तब कहा- वे ऋषि क्या थे? प्राण ही ऋषि थे।

पद्ब्रहम च तपश्च सप्तऋषय उपजीवन्ति ब्रह्म वर्चस्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद-अथर्व

पद्ब्रहम च तपश्च सप्तऋषय उपजीवन्ति ब्रह्म वर्चस्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद-अथर्व

योग के विभूतिपाद में अ‍ष्टसिद्धि के अलावा अन्य अनेक प्रकार की सिद्धियों का वर्णन मिलता है। सभी सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए चक्रों को जाग्रत करना चाहिए। मनुष्य शरीर स्थित कुंडलिनी शक्ति में जो चक्र स्थित होते हैं उनकी संख्या कहीं छ: तो कहीं सात बताई गई है।

समय-समय पर चक्रों वाले स्थान पर ध्यान दिया जाए तो मानसिक स्वास्थ्य और सुदृढ़ता के साथ ही सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं तो जानते है चक्रों को जाग्रत करने की विधि और किस चक्र से प्राप्त होती है कौन सी सिद्धि।

1। मूलाधार चक्र : यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह ‘आधार चक्र’ है। 99।9 लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।

मंत्र : लं

चक्र जगाने की विधि : मनुष्य तब तक पशुवत है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है इसीलिए भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्‍यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।

प्रभाव : इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतर वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।

2। स्वाधिष्ठान चक्र- यह वह चक्र है, जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है जिसकी छ: पंखुरियां हैं। अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है तो आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीत हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।

मंत्र : वं

कैसे जाग्रत करें : जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।

प्रभाव : इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हो तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।

3। मणिपुर चक्र : नाभि के मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत मणिपुर नामक तीसरा चक्र है, जो दस दल कमल पंखुरियों से युक्त है। जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है उसे काम करने की धुन-सी रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।

मंत्र : रं

कैसे जाग्रत करें : आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।

प्रभाव : इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं। आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।

4। अनाहत चक्र- हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही अनाहत चक्र है। अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं। आप चित्रकार, कवि, कहानीकार, इंजीनियर आदि हो सकते हैं।

मंत्र : यं

कैसे जाग्रत करें : हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और सुषुम्ना इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।

प्रभाव : इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है। इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान स्वत: ही प्रकट होने लगता है।

व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।

5। विशुद्ध चक्र- कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां विशुद्ध चक्र है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। सामान्यतौर पर यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास एकत्रित है तो आप अति शक्तिशाली होंगे।

मंत्र : हं

कैसे जाग्रत करें : कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : इसके जाग्रत होने कर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।

6। आज्ञाचक्र : भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में आज्ञा चक्र है। सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां ज्यादा सक्रिय है तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमाग का बन जाता है लेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन रहता है। इस बौद्धिक सिद्धि कहते हैं।

मंत्र : ऊं

कैसे जाग्रत करें : भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं। इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से ये सभी शक्तियां जाग पड़ती हैं और व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।

7। सहस्रार चक्र : सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है अर्थात जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम, नियम का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे व्यक्ति को संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब नहीं रहता है।

कैसे जाग्रत करें : मूलाधार से होते हुए ही सहस्रार तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह चक्र जाग्रत हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।

प्रभाव : शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही मोक्ष का द्वार है।

चक्र संस्थान के जागरण के फलस्वरूप मिलने वाली षट् सम्पत्तियों का वर्णन मिलता है। इन्हें आध्यात्मिक उपलब्धियां भी कह सकते हैं।

षट् सम्पत्ति यह है—

(1) शम (2) दम (3) उपरति (4) तितीक्षा (5) श्रद्धा (6) समाधान।

शम—अर्थात् शान्ति उद्वेगों का शमन। दम-इन्द्रियों का दमन करने की क्षमता। उपरति—दुष्टता से घृणा। तितीक्षा—कष्टों का धैर्यपूर्वक सहना। श्रद्धा—सन्मार्ग में प्रगाढ़ निष्ठा, विश्वास और भावना का समन्वय। समाधान—संशयों और लालसाओं से छुटकारा।

यह गुण, कर्म, स्वभाव की विशेषताएं हैं। उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व से मनुष्य ऊंचा उठता है और ब्रह्म परायण व्यक्तियों को मिलने वाले आन्तरिक सन्तोष, उल्लास और बाह्य सम्मान, सहयोग का अधिकारी बनता है।

इसके अतिरिक्त आत्मिक प्रगति के भौतिक लाभ भी कितने ही हैं। जिन्हें सिद्धियों के नाम से पुकारा गया है। आत्मिक सफलताओं के सम्पत्ति एवं विभूति दो नाम हैं। भौतिक प्रगति को समृद्धि एवं सिद्धि के नाम से सम्बोधित किया जाता है। दोनों के सम्मिलित परिणाम को अतीन्द्रिय क्षमता विकास के रूप में देखा जा सकता है।

श्री आद्य शंकराचार्य ने आठ सिद्धियां यह गिनाई हैं—(1) जन्म सिद्धि (2) शब्द ज्ञान सिद्धि (3) शास्त्रज्ञान सिद्धि (4) आधिदैविक ताप सहन शक्ति (5) आध्यात्मिक ताप सहन शक्ति (6) आधिभौतिक ताप सहन शक्ति (7) विज्ञान सिद्धि (8) विद्या शक्ति।

जन्म सिद्धि का अर्थ है पूर्व जन्मों की स्थिति का आभास पूर्व जन्मों के सम्बन्धियों के प्रति सहज आकर्षण और उनके साथ अपने पूर्व सम्बन्धों की जानकारी।

शब्द सिद्धि का अर्थ है—शब्दों के साथ जुड़ी हुई भावना का आभास। शब्दों की शक्ति बड़ी सीमित है और उससे कुछ का कुछ—उलटा-सीधा—अप्रासंगिक अर्थ भी निकल सकता है। कहने वाले की भावना का सही अनुमान वही लगा सकता है जिसका अन्तःकरण पवित्र हो।

शास्त्र सिद्धि का तात्पर्य है—शास्त्रकार की मूल भावना को समझना और यह जानना कि यह प्रतिपादन किस देश, काल, पात्र को ध्यान में रखकर किया गया है। कोई सिद्धान्त या प्रतिपादन सार्वभौम या सर्वकालीन नहीं होता। यह शास्त्र वचन किस प्रकार प्रयुक्त करना चाहिए, यह सूक्ष्म ज्ञान होना ही शब्द की सिद्धि है।

आधिदैविक ताप सहन शक्ति का अर्थ है—दैवी प्रकोप अथवा प्रारब्ध जन्म योग के कारण, आकस्मिक अनायास विपत्तियां उत्पन्न हो जाने, प्रियजनों के कारण विछोह आदि के अवसर उपस्थित हो जाने पर उन शोक सम्वेदनाओं का धैर्यपूर्वक सहन।

आध्यात्मिक ताप सहन शक्ति का तात्पर्य है—काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद-मत्सर, ईर्ष्या आदि उद्वेगों को नियन्त्रण में रखना। इन्द्रियों के अमर्यादित योग को छूट न देना, मन को उच्छृंखल न होने देना। इस अवरोध से भीतर जो असन्तोष उत्पन्न होता है उसको हंसते हुए टाल देना।

विज्ञान शक्ति का अर्थ है—शुद्ध अन्तःकरण, निर्मल चरित्र, सन्तुलित मन, सौम्य स्वभाव और हंस मुख प्रकृति, निरालस्यता स्फूर्तिवान और नियम-पालन की तत्परता, कर्त्तव्य-पालन में प्रगाढ़ निष्ठा, उदार व्यवहार में सन्तोष।

विद्या शक्ति अर्थात्—आत्मा के स्वरूप, उद्देश्य तथा कर्त्तव्य पर भावना और विश्वास भरी निष्ठा, ईश्वर पर विश्वास, आत्मा को सर्वव्यापी समझ कर सबको अपना ही समझना और आत्मीयता भरा व्यवहार करना, प्रेम भावनाओं का उभार, उद्वेग और आवेशों से निवृत्ति।

अतिवादी या अति उच्चस्तरीय अपवाद रूप में कहीं-कहीं, कभी-कभी सुनी, देखी जाने वाली सिद्धियों में

(1) अणिमा (2) महिमा (3) गरिमा (4) लघिमा (5) प्राप्ति (6) प्राकाम्य (7) ईशत्व (8) वशित्व का वर्णन मिलता है।

अणिमा अर्थात्—शरीर को अणु के समान सूक्ष्म बना लेना। महिमा अर्थात्—बहुत बड़ा कर लेना। गरिमा—बहुत भारीपन। लघिमा—बहुत हलकापन। प्राप्ति—दूरस्थ वस्तु की समीपता। प्राकाम्य—मनोरथों की पूर्ति। ईशत्व—स्वामित्व, अभीष्ट वस्तु व्यक्ति या परिस्थिति पर अधिकार। वशित्व—वशवर्ती बना लेना।

अष्ट सिद्धियों का दूसरा वर्णन एक और भी मिलता है—

(1) परकाया प्रवेश (2) जलादि में असंग (3) उत्क्रान्ति (4) ज्वलन (5) दिव्य श्रवण (6) आकाश गमन (7) प्रकाश आवरण क्षय (8) भूत जय।

संचालन के सिधान्तों को जाना व प्रयोग किया जा सकता है किन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि किस योग से क्या घटित होता है इसी विषय पर संक्षिप्त लेख प्रस्तुत किया जा रहा है सभी योग के सिद्धि को प्राप्त करने की प्रक्रिया अलग-अलग है अतः प्रक्रिया पर पुनः विचार किया जायेगा योग के सिद्धियों की संख्या बहुत अधिक है, नीचे हम कुछ महत्वपूर्ण सिद्धियों का संक्षिप्त में वर्णन कर रहे हैं।

(1) यह जगत संस्कारों (काल-समय) का परिणाम है और उन संस्कारों के क्रम में अदल-बदल होने से ही तरह-तरह के परिवर्तन होते रहते हैं। योगी इस तत्व को जान कर प्रत्येक वस्तु और घटना के ‘भूत’ तथा भविष्यत् का ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

(2) शब्द, अर्थ और ज्ञान का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है इनके ‘संयम’ (धारणा, ध्यान और समाधि, इन तीनों साधन क्रियाओं के एकीकरण को ‘संयम’ कहते हैं) से ‘सब प्राणियों की वाणी’ का ज्ञान हो जाता है।

(3) अति सूक्ष्म संस्कारों (काल-समय) को प्रत्यक्ष देख सकने के कारण योगी को किसी भी व्यक्ति के पूर्व जन्म या अगले जन्म का ज्ञान होता है।

(4)अपने ज्ञान में संयम करने पर दूसरों के चित्त का ज्ञान होता है। इसके द्वारा योगी प्रत्येक प्राणी के मन की बात जान सकता है।

(5) कायागत रूप में संयम करने से दूसरों के नेत्रों के प्रकाश का योगी के शरीर के साथ संयोग नहीं होता। इससे योगी का शरीर ‘अन्तर्धान’ हो जाता है। इसी प्रकार उसके शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध को भी पास में बैठा हुआ पुरुष नहीं जान सकता।

(6) ’सोपक्रम’ का अभ्यास करने से योगी को मृत्यु का पूर्व ज्ञान हो जाता है।

(7) सातवीं सिद्धि (ध्यान) से योगी के आत्म-बल का इतना विकास हो जाता है कि उसके मन पर इन्द्रियों का वश नहीं चलता।।

(8) बल में संयम करने से योगी को हाथी, शेर, ग्राह, गरुड़ की शक्ति प्राप्त होती है।

(9) ज्योतिष्मती प्रकृति के प्रकाश को सूक्ष्म वस्तुओं पर न्यास्त करके संयम करने से सूक्ष्म, गुप्त और दूरस्थ पदार्थों का ज्ञान होता है। इससे वह जल या पृथ्वी के भीतर समस्त पदार्थों को देख सकने में समर्थ होता है।

(10) सूर्य नारायण में संयम करने से योगी को क्रमशः स्थूल और सूक्ष्म लोकों का ज्ञान होता है। सात स्वर्ग और सप्त पाताल सूक्ष्म लोक कहे जाते हैं। योगी का अन्यान्य ब्रह्मांडों का भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

(11) चंद्रमा में संयम करने से समस्त राशियों और नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त होता है।

(12) ध्रुव में संयम करने से समस्त ताराओं की गति का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है।

(13) नाभि चक्र में संयम करने से योगी को शरीर के भीतरी अंगों का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। वात, पित्त, कफ ये तीन दोष किस रीति से हैं; चर्म, रुधिर, माँस, नख, हाथ, चर्बी और वीर्य ये सात धातुएँ किस प्रकार से हैं; नाड़ी आदि कैसी-कैसी हैं, इन सब का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

(14) कण्ठकूप में संयम करने से भूख और प्यास निवृत्त हो जाती है। मुख के भीतर उदर में वायु और आहार जाने के लिये जो कण्ठछिद्र है उसी का ‘कण्ठ कूप’ कहते हैं। यही पर पाँचवाँ चक्र स्थित है और क्षुधा, पिपासा आदि क्रियाओं का इससे घनिष्ठ सम्बन्ध है।

(15) कूर्म नाड़ी में संयम करने से मन अपनी चंचलता त्याग कर व्यक्ति स्थिर हो जाता है।

(16) कपाल की ज्योति में संयम करने से योगी को सिद्धजनों के दर्शन होते हैं। सिद्ध महात्मागण जीव श्रेणी से मुक्त होकर सृष्टि के कल्याणार्थ चौदह भुवन में विराजते हैं।

(17) योग-साधन करते समय ध्यानावस्था में दिखलाई पड़ने वाले ‘प्रातिभ’ नामक तारे में संयम करने से ज्ञान-राज्य की समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

(18) हृदय में संयम करने से चित्त का पूर्ण ज्ञान होता है। वैसे महामाया की माया से कोई चित्त का पूर्ण स्वरूप नहीं जान पाता, पर जब योगी हृदयकमल पर संयम करता है तो अपने चित्त का पूर्ण ज्ञाता प्राप्त कर लेता है।

(19) बुद्धि की चिद्भाव अवस्था में संयम करने से पुरुष के स्वरूप का ज्ञान होता है। इससे योगी को (1) प्रातिभ, (2) श्रावण, (3) वेदन, (4) आदर्श, (5) आस्वाद और (6) वार्ता — ये षट्सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

(20) बन्धन का जो कारण है उसके शिथिल हो जाने से और संयम द्वारा चित्त की प्रवेश निर्गमन मार्ग नाड़ी का ज्ञान हो जाने से योगी किसी भी शरीर में प्रवेश कर सकता है। यही परकाया प्रवेश की सिद्ध है।

(21) उदान वायु को जीतने से जल, कीचड़ और कण्टक आदि पदार्थों का योगी को स्पर्श नहीं होता और मृत्यु भी वशीभूत हो जाती है अर्थात् वह इच्छा मृत्यु को प्राप्त होता है जैसा कि भीष्म पितामह का उदाहरण प्रसिद्ध है।

(22) समान वायु को वश में करने से योगी का शरीर तेज-पुञ्ज और ज्योतिर्मय हो जाता है। जिससे अंधकार में भी गमन कर सकता है ।

(23) कर्ण इन्द्रिय और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से योगी को दिव्य श्रवण की शक्ति प्राप्त होती है। अर्थात् वह गुप्त से गुप्त, सूक्ष्म से सूक्ष्म और दूरवर्ती से दूरवर्ती शब्दों को भली प्रकार सुन सकता है।

(24) शरीर और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से आकाश में गमन हो सकता है।

(25)शरीर के बाहर मन की जो स्वाभाविक वृत्ति ‘महा विदेह धारणा’ है उसमें संयम करने से अहंकार का नाश हो जाता है और योगी अपने अन्तःकरण को यथेच्छा (किसी भी लोक में) ले जाने की सिद्धि प्राप्त करता है।

(26) पंच तत्वों की स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थतत्व — ये पाँच अवस्थाएँ हैं। इन पर संयम करने से जगत् का निर्माण करने वाले पंचभूतों पर जयलाभ होता है और प्रकृति वशीभूत हो जाती है। इससे अणिमा, लघिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व, ईशित्व — ये अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इस प्रकार योगी, समाधि अवस्था में पहुँचने के बाद जिस किसी विषय पर अपना ध्यान लगाता है उसी का पूर्ण ज्ञान किसी से बिना सीखे अथवा बिना कहीं गये हुये प्राप्त हो जाता है।

अन्त में परमात्मा की ओर अग्रसर होते हुये उसे वैसी ही शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं जो ईश्वर में पाई जाती है। वह त्रिकालदर्शी हो जाता है और सब लोकों में उसकी गति हो जाती है और उसके संकल्प मात्र से महान परिवर्तन हो जाते हैं। पर यह सब कुछ संभव होने पर भी महात्माओं का मत यही है कि साधक को अपना लक्ष्य सदा मोक्ष रखना चाहिये। ये समस्त सिद्धियाँ “अपरा” कही जाती हैं। परा सिद्धि मोक्ष ही है जिसका लक्ष्य अपने स्वरूप अनुभव करके मुक्ति प्राप्त करना होता है।

कुंडलिनी वह रहस्यमय शक्ति है, जो व्यक्ति के शरीर में सूक्ष्म रूप में व्याप्त है। इसे जगाने की एक विधि है, जिसे गुरु परंपरा से सीखा जा सकता है। जब यह शक्ति जागने लगती है तो विभिन्न मुद्राएं, प्रणायाम या आसन आदि क्रियाएं अपने आप होने लगती है। कुंडलिनी विद्या को गुरु परंपरा से प्राप्त ज्ञान भी कहा जाता है। यदि साधक तीव्र जिज्ञासु हो और आसन प्राणायाम आदि को तीव्र गति से लंबे समय तक नियमित रूप से करता है तब भी कुंडलिनी जागृत हो जाती है। स्वयं साधना करने से कुंडलिनी जागृत हो जाती है तो भी कुंडलिनी योग परंपरा में ऐसा माना जाता है कि गुरु की कृपा से जागृत शक्ति ही अभी जागृत हुई है।हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि जिस प्रकार डंडे की मार खाकर सांप सीधा डंडे की आकृति वाला हो जाता है, उसी प्रकार जालंधर बंध करके वायु को ऊपर ले जाकर कुंभक का अभ्यास करें। साधक धीरे धीरे श्वास छोड़ें। इस महामुद्रा से कुंडलिनी शक्ति सीधी (जागृत) हो जाती है। कुंडलिनी को सहस्त्रार तक पहुंचा कर उसे स्थित रखना है या समाधि को प्राप्त करना है, तब साधक को विकारों का त्याग करना पड़ता है। कुंडलिनी जागृत होने के बाद साधक निरंतर उसका अभ्यास करता है। यदि साधना काल में साधक अपने विकारों को योग के जरिए समाप्त नहीं करता तब वह शक्ति फिर निम्न चक्रों में पतन की आशंका बनी रहती है।

आकाश में दिखाई देने वाला सूर्य तो अग्नि का एक अत्यंत विराट पिंड है। पर उससे निकलने वाली किरणें और प्रवाह पृथ्वी के अलावा सात आठ अन्य ग्रहों पर भी अपरिमित शक्ति का भंडार भरपूर रखता है।

एक छोटा सा विवरण मस्तिष्क की और सूर्य की शक्ति के विस्फोट से होने वाले चमत्कार की तुलना के रुप में दिखाया गया है। इस तुलना में मनुष्य की और गणेश के चरित में आरोपित की गई शक्तियों से आंकी जाती है।

इन शक्तियों का ब्यौरा जुटाते हुए विज्ञान और अध्यात्म विषयों के लेखक डा।हरि देसाई ने लिखा है कि मनुष्य हाथ से जितनी देर में एक अंक लिखता है, उतनी देर में कंप्यूटर सोलह अंकों वाली किसी भी संख्या के गुणनफल, लघुत्तम और समापरवर्तक निकाल सकता है।

आदमी ज्यादा से ज्यादा पांच हजार शब्द याद रख सकता हैं, पर कंप्यूटर उतनी ही देऱ में साठ हजार शब्द याद कर लेता है। कोई व्यक्ति एक बार में कठिनाई से छह भाषाएं याद रख सकता है, पर कंप्यूटर एक बार में तीन सौ से ज्यादा भाषाएं सीख और याद कर सकता है।

ध्यान में होने वाले अनुभव

साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं। अनेक साधकों के ध्यान में होने वाले अनुभव एकत्रित कर यहाँ वर्णन कर रहे हैं ताकि नए साधक अपनी साधना में अपनी साधना में यदि उन अनुभवों को अनुभव करते हों तो वे अपनी साधना की प्रगति, स्थिति व बाधाओं को ठीक प्रकार से जान सकें और स्थिति व परिस्थिति के अनुरूप निर्णय ले सकें।

१। भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर पहले काला और फिर नीला रंग दिखाई देता है। फिर पीले रंग की परिधि वाले नीला रंग भरे हुए गोले एक के अन्दर एक विलीन होते हुए दिखाई देते हैं। एक पीली परिधि वाला नीला गोला घूमता हुआ धीरे-धीरे छोटा होता हुआ अदृश्य हो जाता है और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है। इस प्रकार यह क्रम बहुत देर तक चलता रहता है। साधक यह सोचता है इक यह क्या है, इसका अर्थ क्या है ? इस प्रकार दिखने वाला नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है। नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है। पीला रंग आत्मा का प्रकाश है जो जीवात्मा के आत्मा के भीतर होने का संकेत है।

इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण है। इससे भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्षा दीखने लगते है और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं। साथ ही हमारे मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है जिससे हम असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेते हैं।

अध्यात्म और योग का सबसे ऊँचा ज्ञान शिव सूत्र से निकालकर कहानी और गाने “झूठ पुलिंदा” के माध्यम से आप सभी भक्तों को समर्पित है।

२। कुण्डलिनी जागरण का अनुभव :-

कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिर परमात्मा में लीन हो जाते हैं। अर्थात यह ईश्वर की साक्षात् शक्ति है। यह कुदालिनी शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शारीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है। जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक हम सांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं। परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुदा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमता हुआ ऊपर उठ रहा है। यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है। यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है।

जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है। यह स्पंदन लगभग वैसा ही होता है जैसे हमारा कोई अंग फड़कता है। फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुक जाती है। जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है, यानि उनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है। इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर हम सांसारिक विषय भोगों से विरक्त हो जाते हैं और ईश्वर प्राप्ति की ओर हमारा मन लग जाता है। इसके अतिरिक्त हमारी कार्यक्षमता कई गुना बढ जाती है। कठिन कार्य भी हम शीघ्रता से कर लेते हैं।

३। कुण्डलिनी जागरण के लक्षण :

कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षण हैं : ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं हूं या गर्जना के शब्द करना, गेंद की तरह एक ही स्थान पर फुदकना, गर्दन का भाग ऊंचा उठ जाना, सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र पर चींटियाँ चलने जैसा लगना, कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है ऐसा लगना, मुंह का पूरा खुलना और चेहरे की मांसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है।

४। एक से अधिक शरीरों का अनुभव होना :

कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है। यानि एक तो यह स्थूल शारीर है और उस शरीर से निकलते हुए २ अन्य शरीर। तब साधक कई बार घबरा जाता है। वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़ भी देता है। परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है।

एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है। दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है तीसरा शरीर कारण शारीर कहलाता है। सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शारीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि। परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है। तीसरा शरीर कारण शरीर है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं। मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है। इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं।

५। दो शरीरों का अनुभव होना :-

अनाहत चक्र (हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों का अनुभव होता ही है। कई बार साधकों को लगता है जैसे उनके शरीर के छिद्रों से गर्म वायु निकर्लर एक स्थान पर एकत्र हुई और एक शरीर का रूप धारण कर लिया जो बहुत शक्तिशाली है। उस समय यह स्थूल शरीर जड़ पदार्थ की भांति क्रियाहीन हो जाता है। इस दूसरे शरीर को सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर कहते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सूक्ष्म शरीर हवा में तैर रहा है और वह शरीर हमारे स्थूल शरीर की नाभी से एक पतले तंतु से जुड़ा हुआ है।

कभी ऐसा भी अनुभव अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल गया मतलब जीवात्मा हमारे शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी। ऐसा विचार आते ही हम उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं परन्तु यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है। “स्थूल शरीर मैं ही हूँ” ऐसी भावना करने से व ईश्वर का स्मरण करने से वह सूक्ष्म शरीर शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है। कई बार संतों की कथाओं में हम सुनते हैं कि वे संत एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं, ऐसा उस सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही संभव होता है। उस सूक्ष्म शरीर के लिए कोई आवरण-बाधा नहीं है, वह सब जगह आ जा सकता है।

६। दिव्य ज्योति दिखना :-

सूर्य के सामान दिव्य तेज का पुंज या दिव्य ज्योति दिखाई देना एक सामान्य अनुभव है। यह कुण्डलिनी जागने व परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर होता है। उस तेज को सहन करना कठिन होता है। लगता है कि आँखें चौंधिया गईं हैं और इसका अभ्यास न होने से ध्यान भंग हो जाता है। वह तेज पुंज आत्मा व उसका प्रकाश है। इसको देखने का नित्य अभ्यास करना चाहिए। समाधि के निकट पहुँच जाने पर ही इसका अनुभव होता है।

७। ध्यान में कभी ऐसे लगता है जैसे पूरी पृथ्वी गोद में रखी हुई है या शरीर की लम्बाई बदती जा रही है और अनंत हो गई है, या शरीर के नीचे का हिस्सा लम्बा होता जा रहा है और पूरी पृथ्वी में व्याप्त हो गया है, शरीर के कुछ अंग जैसे गर्दन का पूरा पीछे की और घूम जाना, शरीर का रूई की तरह हल्का लगना, ये सब ध्यान के समय कुण्डलिनी जागरण के कारण अलग-अलग चक्रों की प्रतिभाएं प्रकट होने के कारण होता है। परन्तु साधक को इनका उपयोग नहीं करना चाहिए, केवल परमात्मा की प्राप्ति को ही लक्ष्य मानकर ध्यान करते रहना चाहिए। इन प्रतिभाओं पर ध्यान न देने से ये पुनः अंतर्मुखी हो जाती हैं।

८। कभी-कभी साधक का पूरा का पूरा शरीर एक दिशा विशेष में घूम जाता है या एक दिशा विशेष में ही मुंह करके बैठने पर ही बहुत अच्छा ध्यान लगता है अन्य किसी दिशा में नहीं लगता। यदि अन्य किसी दिशा में मुंह करके बैठें भी, तो शरीर ध्यान में अपने आप उस दिशा विशेष में घूम जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपके ईष्ट देव या गुरु का निवास उस दिशा में होता है जहाँ से वे आपको सन्देश भेजते हैं। कभी-कभी किसी मंत्र विशेष का जप करते हुए भी ऐसा महसूस हो सकता है क्योंकि उस मंत्र देवता का निवास उस दिशा में होता है, और मंत्र जप से उत्पन्न तरंगें उस देवता तक उसी दिशा में प्रवाहित होती हैं, फिर वहां एकत्र होकर पुष्ट (प्रबल) हो जाती हैं और इसी से उस दिशा में खिंचाव महसूस होता है।

९। संसार (दृश्य) व शरीर का अत्यंत अभाव का अनुभव :-

साधना की उच्च स्थिति में ध्यान जब सहस्रार चक्र पर या शरीर के बाहर स्थित चक्रों में लगता है तो इस संसार (दृश्य) व शरीर के अत्यंत अभाव का अनुभव होता है। यानी एक शून्य का सा अनुभव होता है। उस समय हम संसार को पूरी तरह भूल जाते हैं (ठीक वैसे ही जैसे सोते समय भूल जाते हैं)। सामान्यतया इस अनुभव के बाद जब साधक का चित्त वापस नीचे लौटता है तो वह पुनः संसार को देखकर घबरा जाता है, क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं होता कि उसने यह क्या देखा है?

वास्तव में इसे आत्मबोध कहते हैं। यह समाधि की ही प्रारम्भिक अवस्था है अतः साधक घबराएं नहीं, बल्कि धीरे-धीरे इसका अभ्यास करें। यहाँ अभी द्वैत भाव शेष रहता है व साधक के मन में एक द्वंद्व पैदा होता है। वह दो नावों में पैर रखने जैसी स्थिति में होता है, इस संसार को पूरी तरह अभी छोड़ा नहीं और परमात्मा की प्राप्ति अभी हुई नहीं जो कि उसे अभीष्ट है। इस स्थिति में आकर सांसारिक कार्य करने से उसे बहुत क्लेश होता है क्योंकि वह परवैराग्य को प्राप्त हो चुका होता है और भोग उसे रोग के सामान लगते हैं, परन्तु समाधी का अभी पूर्ण अभ्यास नहीं है।

इसलिए साधक को चाहिए कि वह धैर्य रखें व धीरे-धीरे समाधी का अभ्यास करता रहे और यथासंभव सांसारिक कार्यों को भी यह मानकर कि गुण ही गुणों में बारात रहे हैं, करता रहे और ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखे। साथ ही इस समय उसे तत्त्वज्ञान की भी आवश्यकता होती है जिससे उसके मन के समस्त द्वंद्व शीघ्र शांत हो जाएँ। इसके लिए योगवाशिष्ठ (महारामायण) नामक ग्रन्थ का विशेष रूप से अध्ययन व अभ्यास करें। उमें बताई गई युक्तियों “जिस प्रकार समुद्र में जल ही तरंग है, सुवर्ण ही कड़ा/कुंडल है, मिट्टी ही मिट्टी की सेना है, ठीक उसी प्रकार ईश्वर ही यह जगत है।” का बारम्बार चिंतन करता रहे तो उसे शीघ्र ही परमत्मबोध होता है, सारा संसार ईश्वर का रूप प्रतीत होने लगता है और मन पूर्ण शांत हो जाता है।

१०। चलते-फिरते उठते बैठते यह महसूस होना कि सब कुछ रुका हुआ है, शांत है, “मैं नहीं चल रहा हूँ, यह शरीर चल रहा है”, यह सब आत्मबोध के लक्षण हैं यानि परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर यह अनुभव होता है।

११। कई साधकों को किसी व्यक्ति की केवल आवाज सुनकर उसका चेहरा, रंग, कद, आदि का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है और जब वह व्यक्ति सामने आता है तो वह साधक कह उठता है कि, “अरे! यही चेहरा, यही कद-काठी तो मैंने आवाज सुनकर देखी थी, यह कैसे संभव हुआ कि मैं उसे देख सका?” वास्तव में धारणा के प्रबल होने से, जिस व्यक्ति की ध्वनि सुनी है, साधक का मन या चित्त उस व्यक्ति की भावना का अनुसरण करता हुआ उस तक पहुँचता है और उस व्यक्ति का चित्र प्रतिक्रिया रूप उसके मन पर अंकित हो जाता है। इसे दिव्या दर्शन भी कहते हैं।

१२। आँखें बंद होने पर भी बाहर का सब कुछ दिखाई देना, दीवार-दरवाजे आदि के पार भी देख सकना, बहुत दूर स्थित जगहों को भी देख लेना, भूत-भविष्य की घटनाओं को भी देख लेना, यह सब आज्ञा चक्र (तीसरी आँख) के खुलने पर अनुभव होता है।

१३। अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के मन की बात जान लेना या दूर स्थित व्यक्ति क्या कर रहा है (दु:खी है, रो रहा है, आनंद मना रहा है, हमें याद कर रहा है, कही जा रहा है या आ रहा है वगैरह) इसका अभ्यास हो जाना और सत्यता जांचने के लिए उस व्यक्ति से उस समय बात करने पर उस आभास का सही निकलना, यह सब दूसरों के साथ अपने चित्त को जोड़ देने पर होता है। यह साधना में बाधा उत्पन्न करने वाला है क्र्योकि दूसरों के द्वारा इस प्रकार साधक का मन अपनी और खींचा जाता है और ईश्वर प्राप्ति के अभ्यास के लिए कम समय मिलता है और अभय कम हो पाता है जिससे साधना दीरे-धीरे क्षीण हो जाती है। इसलिए इससे बचना चाहिए। दूसरों के विषय में सोचना छोड़ें। अपनी साधना की और ध्यान दें। इससे कुछ ही दिनों में यह प्रतिभा अंतर्मुखी हो जाती है और साधना पुनः आगे बदती है।

१४। ईश्वर के सगुण स्वरुप का दर्शन :-

ईश्वर के सगुण रूप की साधना करने वाले साधानकों को, भगवान का वह रूप कभी आँख वंद करने या कभी बिना आँख बंद किये यानी खुली आँखों से भी दिखाई देने का आभास सा होने लगता है या स्पष्ट दिखाई देने लगता है। उस समय उनको असीम आनंद की प्राप्ति होती है। परन्तु मन में यह विश्वास नहीं होता कि ईश्वर के दर्शन किये हैं। वास्तव में यह सवितर्क समाधि की सी स्थिति है जिसमे ईश्वर का नाम, रूप और गुण उपस्थित होते हैं। ऋषि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में इसे सवितर्क समाधि कहा है। ईश्वर की कृपा होने पर (ईष्ट देव का सान्निध्य प्राप्त होने पर) वे साधक के पापों को नष्ट करने के लिए इस प्रकार चित्त में आत्मभाव से उपस्थित होकर दर्शन देते हैं और साधक को अज्ञान के अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की और खींचते हैं। इसमें ईश्वर द्वारा भक्त पर शक्तिपात भी किया जाता है जिससे उसे परमानन्द की अनुभूति होती है। कई साधकों/भक्तों को भगवान् के मंदिरों या उन मंदिरों की मूर्तियों के दर्शन से भी ऐसा आनंद प्राप्त होता है। ईष्ट प्रबल होने पर ऐसा होता है। यह ईश्वर के सगुन स्वरुप के साक्षात्कार की ही अवस्था है इसमें साधक कोई संदेह न करें।

अध्यात्म और योग का सबसे ऊँचा ज्ञान शिव सूत्र से निकालकर कहानी और गाने “झूठ पुलिंदा” के माध्यम से आप सभी भक्तों को समर्पित है।

१५। कई सगुण साधक ईश्वर के सगुन स्वरुप को उपरोक्त प्रकार से देखते भी हैं और उनसे वार्ता भी करने का प्रयास करते हैं। इष्ट प्रबल होने पर वे बातचीत में किये गए प्रश्नों का उत्तर प्रदान करते हैं, या किसी सांसारिक युक्ति द्वारा साधक के प्रश्न का हल उपस्थित कर देते हैं। यह ईष्ट देव की निकटता व कृपा प्राप्त होने पर होता है। इसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। साधना में आने वाले विघ्नों को अवश्य ही ईश्वर से कहना चाहिए और उनसे सदा मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए। वे तो हमें सदा राह दिखने के लिए ही तत्पर हैं परन्तु हम ही उनसे राह नहीं पूछते हैं या वे मार्ग दिखाते हैं तो हम उसे मानते नहीं हैं, तो उसमें ईश्वर का क्या दोष है? ईश्वर तो सदा सबका कल्याण ही चाहते हैं।

7 चक्र
7 चक्र

 

 

 

१६। शक्तिपात :-

हमारे गुरु या ईष्ट देव हम पर समयानुसार शक्तिपात भी करते रहते हैं। उस समय हमें ऐसा लगता है जैसे मूर्छा (बेहोशी) सी आ रही है या अचानक आँखें बंद होकर गहन ध्यान या समाधि की सी स्थिति हो जाती है, साथ ही एक दिव्य तेज का अनुभव होता है और परमानंद का अनुभव बहुत देर तक होता रहता है। ऐसा भी लगता है जैसे कोई दिव्या धारा इस तेज पुंज से निकलकर अपनी और बह रही हो व अपने अपने भीतर प्रवेश कर रही हो। वह आनंद वर्णनातीत होता है। इसे शक्तिपात कहते है।

जब गुरु सामने बैठकर शक्तिपात करते हैं तो ऐसा लगता है की उनकी और देखना कठिन हो रहा है। उनके मुखमंडल व शरीर के चारों तरफ दिव्य तेज/प्रकाश दिखाई देने लगता है और नींद सी आने लगती है और शरीर एकदम हल्का महसूस होता है व परमानन्द का अनुभव होता है। इस प्रकार शक्तिपात के द्वारा गुरु पूर्व के पापों को नष्ट करते हैं व कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करते हैं।

ध्यान/समाधी की उच्च अवस्था में पहुँच जाने पर ईष्ट देव या ईश्वर द्वारा शक्तिपात का अनुभव होता है। साधक को एक घूमता हुआ सफ़ेद चक्र या एक तेज पुंज आकाश में या कमरे की छत पर दीख पड़ता है और उसके होने मात्र से ही परमानन्द का अनुभव ह्रदय में होने लगता है। उस समय शारीर जड़ सा हो जाता है व उस चक्र या पुंज से सफ़ेद किरणों का प्रवाह निकलता हुआ अपने शरीर के भीतर प्रवेश करता हुआ प्रतीत होता है। उस अवस्था में बिजली के हलके झटके लगने जैसा अनुभव भी होता है और उस झटके के प्रभाव से शरीर के अंगा भी फड़कते हुए देखे जाते हैं।

यदि ऐसे अनुभव होते हों तो समझ लेना चाहिए कि आप पर ईष्ट या गुरु की पूर्ण कृपा हो गई है, उनहोंने आपका हाथ पकड़ लिया है और वे शीघ्र ही आपको इस माया से बाहर खींच लेंगे।

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१७। अश्विनी मुद्रा, मूल बांध का लगना :-

श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना। या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं। कई साधक इसे अनजाने में करते रहते हैं और इसको करने से उन्हें दिव्य शक्ति या आनंद का अनुभव भी होता है परन्तु वे ये नहीं जानते कि वे एक यौगिक क्रिया कर रहे हैं।

अश्विनी मुद्रा का अर्थ है “अश्व यानि घोड़े की तरह करना”। घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है। इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है। यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं। विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं। स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता।

प्रत्येक नए साधक को या जिनकी साधना रुक गई है उनको यह अश्विनी मुद्रा अवश्य करनी चाहिए। इसको करने से शरीर में गरमी का अनुभव भी हो सकता है, उस समय इसे कम करें या धीरे-धीरे करें व साथ में प्राणायाम भी करें। सर्दी में इसे करने से ठण्ड नहीं लगती। मन एकाग्र होता है। साधक को चाहिए कि वह सब अवस्थाओं में इस अश्विनी मुद्रा को अवश्य करता रहे। जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है उतनी ही शक्ति बदती जाती है। इस क्रिया को करने से प्राण का क्षय नहीं होता और इस प्राण उर्जा का उपयोग साधना की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति के लिए या विशेष योग साधनों के लिए किया जा सकता है।

मूल बांध इस अश्विनी मुद्रा से मिलती-जुलती प्रक्रिया है। इसमें गुदा द्वार को सिकोड़कर बंद करके भीतर – ऊपर की और खींचा जाता है। यह वीर्य को ऊपर की और भेजता है एवं इसके द्वारा वीर्य की रक्षा होती है। यह भी कुंडलिनी जागरण व अपानवायु पर विजय का उत्तम साधन है। इस प्रकार की दोनों क्रियाएं स्वतः हो सकती हैं। इन्हें अवश्य करें। ये साधना में प्रगति प्रदान करती हैं।

१८। गुरु या ईष्ट देव की प्रबलता :-

जब गुरु या ईष्ट देव की कृपा हो तो वे साधक को कई प्रकार से प्रेरित करते हैं। अन्तःकरण में किसी मंत्र का स्वतः उत्पन्न होना व इस मंत्र का स्वतः मन में जप आरम्भ हो जाना, किसी स्थान विशेष की और मन का खींचना और उस स्थान पर स्वतः पहुँच जाना और मन का शांत हो जाना, अपने मन के प्रश्नों के समाधान पाने के लिए प्रयत्न करते समय अचानक साधू पुरुषों का मिलना या अचानक ग्रन्थ विशेषों का प्राप्त होना और उनमें वही प्रश्न व उसका उत्तर मिलना, कोई व्रत या उपवास स्वतः हो जाना, स्वप्न के द्वारा आगे घटित होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त होना व समय आने पर उनका घटित हो जाना, किसी घोर समस्या का उपाय अचानक दिव्य घटना के रूप में प्रकट हो जाना, यह सब होने पर साधक को आश्चर्य, रोमांच व आनंद का अनुभव होता है। वह सोचने लगता है की मेरे जीवन में दिव्य घटनाएं घटित होने लगी हैं, अवश्य ही मेरे इस जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य है, परन्तु वह क्या है यह वो नहीं समझ पाटा। किन्तु साधक धैर्य रखे आगे बढ़ता रहे, क्योंकि ईष्ट या गुरु कृपा तो प्राप्त है ही, इसमें संदेह न रखे; क्योंकि समय आने पर वह उद्देश्य अवश्य ही उसके सामने प्रकट हो जाएगा।

१९। ईष्ट भ्रष्टता का भ्रम :-

कई बार साधकों को ईष्ट भ्रष्टता का भ्रम उपस्थित हो जाता है। उदाहरण के लिए कोई साधक गणेशजी को इष्ट देव मानकर उपासना आरम्भ करता है। बहुत समय तक उसकी आराधना अच्छी चलती है, परन्तु अचानक कोई विघ्न आ जाता है जिससे साधना कम या बंद होने लगती है। तब साधक विद्वानों, ब्राह्मणों से उपाय पूछता है, तो वे जन्मकुंडली आदि के माध्यम से उसे किसी अन्य देव (विष्णु आदि) की उप्पसना के लिए कहते हैं। कुछ दिन वह उनकी उपासना करता है परन्तु उसमें मन नहीं लगता। तब फिर वह और किसी की पास जाता है। वह उसे और ही किसी दुसरे देव-देवी आदि की उपासना करने के लिए कहता है। तब साधक को यह लगता है की मैं अपने ईष्ट गणेशजी से भ्रष्ट हो रहा हूँ। इससे न तो गणेशजी ही मिलेंगे और न ही दूसरे देवता और मैं साधना से गिर जाऊँगा।

यहाँ साधकों से निवेदन है की यह सही है की वे अपने ईष्ट देव का ध्यान-पूजन बिलकुल नहीं छोड़ें, परन्तु वे उनके साथ ही उन अन्य देवताओं की भी उपासना करें। साधना के विघ्नों की शांति के लिए यह आवश्यक हो जाता है। उपासना से यहाँ अर्थ उन-उन देवी देवताओं के विषय में जानना भी है क्योंकि उन्हें जानने पर हम यह पाते हैं की वस्तुतः वे एक ही ईश्वर के अनेक रूप हैं (जैसे पानी ही लहर, बुलबुला, भंवर, बादल, ओला, बर्फ आदि है)। इस प्रकार ईष्ट देव यह चाहता है कि साधक यह जाने। इसलिए इसे ईष्ट भ्रष्टता नहीं बल्कि ईष्ट का प्रसार कहना चाहिए।

२०। शरीर का हल्का लगना :-

जब साधक का ध्यान उच्च केन्द्रों (आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र) में लगने लगता है तो साधक को अपना शरीर रूई की तरह बहुत हल्का लगने लगता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब तक ध्यान नीचे के केन्द्रों में रहता है (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर चक्र तक), तब तक “मैं यह स्थूल शरीर हूँ” ऐसी दृढ भावना हमारे मन में रहती है और यह स्थूल शरीर ही भार से युक्त है, इसलिए सदा अपने भार का अनुभव होता रहता है। परन्तु उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से “मैं शरीर हूँ” ऐसी भावना नहीं रहती बल्कि “मैं सूक्ष्म शरीर हूँ” या “मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ परमात्मा का अंश हूँ” ऎसी भावना दृढ हो जाती है। यानि सूक्ष्म शरीर या आत्मा में दृढ स्थिति हो जाने से भारहीनता का अनुभव होता है। दूसरी बात यह है कि उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है जो ऊपर की और उठती है। यह दिव्य शक्ति शरीर में अहम् भावना यानी “मैं शरीर हूँ” इस भावना का नाश करती है, जिससे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का भान होना कम हो जाता है। ध्यान की उच्च अवस्था में या शरीर में हलकी चीजों जैसे रूई, आकाश आदि की भावना करने से आकाश में चलने या उड़ने की शक्ति आ जाती है, ऐसे साधक जब ध्यान करते हैं तो उनका शरीर भूमि से कुछ ऊपर उठ जाता है। परन्तु यह सिद्धि मात्र है, इसका वैराग्य करना चाहिए।

अध्यात्म और योग का सबसे ऊँचा ज्ञान शिव सूत्र से निकालकर कहानी और गाने “झूठ पुलिंदा” के माध्यम से आप सभी भक्तों को समर्पित है।

२१। हाथ के स्पर्श के बिना केवल दूर से ही वस्तुओं का खिसक जाना :-

कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे किसी हलकी वास्तु को उठाने के लिए जैसे ही अपना हाथ उसके पास ले जाते हैं तो वह वास्तु खिसक कर दूर चली जाती है, उस समय साधक को अपनी अँगुलियों में स्पंदन (झन-झन) का सा अनुभव होता है। साधक आश्चर्यचकित होकर बार-बार इसे करके देखता है, वह परीक्षण करने लगता है कि देखें यह दुबारा भी होता है क्या। और फिर वही घटना घटित होती है। तब साधक यह सोचता है कि अवश्य ही यह कोई दिव्य घटना उसके साथ घटित हो रही है। वास्तव में यह साधक के शरीर में दिव्य उर्जा (कुंडलिनी, मंत्र जप, नाम जप आदि से उत्पन्न उर्जा) के अधिक प्रवाह के कारण होता है। वह दिव्य उर्जा जब अँगुलियों के आगे एकत्र होकर घनीभूत होती है तब इस प्रकार की घटना घटित हो जाती है।

२२। रोगी के रुग्ण भाग पर हाथ रखने से उसका स्वस्थ होना :-

कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे अनजाने में किसी रोगी व्यक्ति के रोग वाले अंग पर कुछ समय तक हाथ रखते हैं और वह रोग नष्ट हो जाता है। तब सभी लोग इसे आश्चर्य की तरह देखते हैं। वास्तव में यह साधक के शरीर से प्रवाहित होने वाली दिव्य उर्जा के प्रभाव से होता है। रोग का अर्थ है उर्जा के प्रवाह में बाधा उत्पन्न हो जाना। साधक के संपर्क से रोगी की वह रुकी हुई उर्जा पुनः प्रवाहित होने लगती है, और वह स्वस्थ हो जाता है। मंत्र शक्ति व रेकी चिकित्सा पद्धति का भी यही आधार है कि मंत्र एवं भावना व ध्यान द्वारा रोगी की उर्जा के प्रवाह को संतुलित करने की तीव्र भावना करना।

आप अपने हाथ की अंजलि बनाकर उल्टा करके अपने या अन्य व्यक्ति के शरीर के किसी भाग पर बिना स्पर्श के थोडा ऊपर रखें। फिर किसी मंत्र का जप करते हुए अपनी अंजलि के नीचे के स्थान पर ध्यान केन्द्रित करें और ऐसी भावना करें कि मंत्र जप से उत्पन्न उर्जा दुसरे व्यक्ति के शरीर में जा रही है। कुछ ही देर में आपको कुछ झन झन या गरमी का अनुभव उस स्थान पर होगा। इसे ही दिव्य उर्जा कहते हैं। यह मंत्र जाग्रति का लक्षण है।

२३। अंग फड़कना :-

शिव पुराण के अनुसार यदि सात या अधिक दिन तक बांयें अंग लगातार फड़कते रहें तो मृत्यु योग या मारक प्रयोग (अभिचारक प्रयोग) हुआ मानना चाहिए। कोई बड़ी दुर्घटना या बड़ी कठिन समस्या का भी यह सूचक है। इसके लिए पहले कहे गए उपाय करें (देखें विघ्न सूचक स्वप्नों के उपाय)। इसके अतिरिक्त काली की उपासना करें। दुर्गा सप्तशती में वर्णित रात्रिसूक्तम व देवी कवच का पाठ करें। मान काली से रक्षार्थ प्रार्थना करें।

दांयें अंग फड़कने पर शुभ घटना घटित होती है, साधना में सफलता प्राप्त होती है। यदि बांया व दांया दोनों अंग एक साथ फडकें तो समझना चाहिए कि विपत्ति आयेगी परन्तु ईश्वर की कृपा से बहुत थोड़े से नुक्सान में ही टल जायेगी। एक और संकेत यह भी है कि कोई पूर्वजन्म के पापों के नाश का समय है इसलिए वे पाप के फल प्रकट तो होंगे किन्तु ईश्वर की कृपा से कोई विशेष हानि नहीं कर पायेंगे। इसके अतिरिक्त यह साधक के कल्याण के लिए ईश्वर के द्वारा बनाई गई योजना का भी संकेत है।

२४। गुरु/ईष्ट के परकाय प्रवेश द्वारा साधक को परमात्मबोध की प्राप्ति :-

गुरु या ईष्ट देव अपने सूक्ष्म शरीर से साधक के शरीर में प्रवेश करते हैं और उसे प्रबुद्ध करते हैं। प्रारम्भ में साधक को यह महसूस होता है कि आसपास कोई है जो अदृश्य रूप से उसके साथ साथ चलता है। कभी कोई सुगंध, कभी कोई स्पर्श, कभी कोई ध्वनि सुनाई दे सकती है, जिसका पता आसपास के किसी आदमी को नहीं लगेगा, उनका कोई वास्तविक कारण प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देगा। इसके बाद जब यह अभ्यास दृढ हो जाता है तो शरीर का कोई अंग तेजी से अपने आप हिलना, रोकने की कोशिश करने पर भी नहीं रुकना और उस समय एक आनंद बना रहना, इस प्रकार के अनुभव होते हैं। तब साधक यह सोचता है कि यह क्या है? कहीं साधना में कुछ गलत तो नहीं हो रहा। यह किसी दैवीय शक्ति का प्रभाव है या आसुरी शक्ति का? तो इसका उत्तर है कि यदि दांया अंग हिले तो समझना चाहिए कि दैवीय शक्ति का प्रभाव है और यदि बांया अंग हिले तो समझना चाहिए कि आसुरी शक्ति का प्रभाव है और वह शरीर में प्रवेश करना चाहती है। साथ ही यदि एक आनंद बना रहे तो समझें कि दैवीय शक्ति प्रवेश करना चाहती है। किन्तु यदि क्रोध से आँखें लाल हो जाएँ, मन में बेचैनी जैसी हो तो समझना चाहिए कि आसुरी शक्ति है। इस प्रकार जब पहचान हो जाए तो यदि आसुरी शक्ति हो तो उसे बलपूर्वक रोकना चाहिए। इसके लिए भगवान् व गुरु से प्रार्थना करें कि वह इस आसुरी शक्ति से हमारी रक्षा करें व उसे सदा के लिए हमसे दूर हटा दें। यदि दैवीय शक्ति है तो आपको प्रयत्न करने पर शीघ्र ही यह पता लग जाएगा कि वे कौन हैं और आगे आपको क्या करना चाहिए।

वैदिक एवं तांत्रिक मंत्र अर्थ, महत्व और 100% लाभ

वैदिक एवं तांत्रिक मंत्र अर्थ, महत्व और 100% लाभ

वैदिक एवं तांत्रिक मंत्र अर्थ, महत्व और 100% लाभ
वैदिक एवं तांत्रिक मंत्र अर्थ, महत्व और 100% लाभ

गायत्री मंत्र: अर्थ, महत्व और लाभ

गायत्री मंत्र इसे महान ऋषि विश्वामित्र ने लिखा था। गायत्री मंत्र में चौबीस अक्षर हैं, जो आठ अक्षरों के त्रिक के अंदर व्यवस्थित हैं।
 गायत्री मंत्र में रीढ़ की 24 कशेरुकाओं के अनुरूप 24 अक्षर होते हैं। जिस तरह रीढ़ की हड्डी हमारे शरीर को सहारा और स्थिरता प्रदान करती है। इसी प्रकार गायत्री मंत्र हमारी बुद्धि में स्थिरता लाता है। गायत्री मंत्र के प्रभावों को हम अच्छी तरह समझते हैं।गायत्री मंत्र चेतना की तीनों अवस्थाओं को प्रभावित करता है, जागृत (जागना), सुषुप्त (गहरी नींद) और स्वप्न (सपना)। यह अस्तित्व की तीन परतों आध्यात्मिक (आध्यात्मिक), आदि दैविक (अलौकिक) और अधिभूतिका (आध्यात्मिक) को प्रभावित करने के लिए भी जाना जाता है।
गायत्री मंत्र को सामान्य रूप में गायत्री के नाम से जाना जाता है। उन्हें सावित्री और वेदमाता (वेदों की माता) के रूप में भी जाना जाता है। गायत्री को अक्सर वेदों में सौर देवता सावित्री के साथ जोड़ा जाता है। स्कंद पुराण जैसे कई ग्रंथों के अनुसार, सरस्वती या उनके रूप का दूसरा नाम गायत्री है और भगवान ब्रह्मा की पत्नी हैं। वेद माता के रूप में वह चार वेदों, ऋग्, साम, यजुर और अथर्व को जन्म देती हैं।
अन्य ग्रंथों में विशेष रूप से शैव, महागायत्री शिव की पत्नी हैं और उनके साथ उनके उच्चतम रूप सदाशिव में हैं। गौतम ऋषि को देवी गायत्री का आशीर्वाद प्राप्त था इसलिए वह अपने जीवन में आई हर बाधाओं को दूर करने में सक्षम थे, इसे गायत्री मंत्र की उत्पत्ति के पीछे की कहानी के रूप में भी जाना जाता है।
वराह पुराण और महाभारत के अनुसार, देवी गायत्री ने नवमी के दिन दानव वेत्रासुर, वृत्रा और वेत्रावती नदी का पुत्र, का वध किया था। इसलिए गायत्री मंत्र को अच्छे के रास्ते से आसुरी बाधाओं को दूर करने के लिए भी जाना जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार गायत्री का विवाह ब्रह्मा से हुआ, जिससे वह सरस्वती का रूप बन गईं।
गायत्री मंत्र: वे कैसे मदद करते हैं?
ओम्’ एक शब्दांश है जिसका अर्थ है सिर्फ एक शब्दांश में समूचा ब्रह्म या ब्रह्मांड। ‘भूर’, ‘भुव:’ और ‘स्वः’ व्याहृति कहलाते हैं। व्याहृति वह है जो संपूर्ण ब्रह्मांड का ज्ञान देती है, उनका अर्थ क्रमशः ‘अतीत’, ‘वर्तमान’ और ‘भविष्य’ है।
संक्षेप में, मंत्र का अर्थ है: ‘हे निरपेक्ष अस्तित्व, तीन आयामों के निर्माता, सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परामात्मा के तेज का हम ध्यान करते हैं, वह परमात्मा का तेज हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करें।’
इसका सीधा सा अर्थ है, ‘हे देवी माँ, हम गहरे अंधकार में हैं। कृपया इस अंधकार को हमसे दूर करें और हमारे अंदर रोशनी का प्रकाश जलाएं।’ ‘तत्’ का शाब्दिक अर्थ है ‘वह’। यह सर्वोच्च और परम वास्तविकता की ओर इशारा करता है।
गायत्री मंत्र हमें बहुत कुछ सीखने में मदद करता है, जिसकी मदद से जीवन में सफलता मिलना सहज हो जाता है। ग्रंथों से पता चलता है कि जब कोई व्यक्ति गायत्री मंत्र का जाप ध्यान से करता है, तो उसका हृदय शुद्ध हो जाता है। यदि यह मंत्र हमारे मन-मस्तिष्क में समा जाए, तो रोजमर्रा के जीवन में भले हमारे सामने कई कठिनाईयां आती रहें, फिर भी हम खुद को शांत और स्थिर रखने में सफल हो जाएंगे। इस मंत्र की बदौलत परमात्मा हमारा मार्गदर्शन करेंगे, हमें शांति और ज्ञान देंगे।
गायत्री मंत्र का जाप कैसे करें
गायत्री मंत्र जीवन को बेहतर बनाने वाली प्रार्थना है। प्राचीन ग्रंथों में लिखित है कि गायत्री मंत्र को प्रतिदिन 10 बार जपने से इस जीवन के पाप दूर हो जाते हैं, प्रतिदिन 100 बार इसका उच्चारण करने से आपके पिछले जन्म के पाप दूर हो जाते हैं, और प्रतिदिन 1000 बार इस मंत्र का जाप करने से तीन युगों (असंख्य जीवन) के पापों का नाश होता है।
यूं तो गायत्री मंत्र का जाप दिन के किसी भी समय किया जा सकता है, इसके बावजूद गायत्री मंत्र का जाप करने के लिए कुछ नियम बनाए गए हैं। इनका पालन अवश्य किया जाना चाहिए। परंपरागत रूप से, यह उपनयन संस्कार के दौरान एक पिता से पुत्र को पारित किया गया था। यदि यह मंत्र किसी अन्य व्यक्ति के मुख से सुन लिया जाए, तो स्वयं इसे दोहराने से बचना चाहिए।
इस मंत्र का उच्चारण जोर आवाज में किए बजाय मन में किया जाना चाहिए। इससे इसका प्रभावशाली फल जातक को मिलता है।
यदि आपको किसी तरह की शारीरिक-मानसिक समस्या नहीं है और सुबह ब्रह्म मुहुर्त में उठने में आपको कोई समस्या नहीं है, तो सुबह ब्रह्म मुहुर्त 3:30 – 4:30 बजे उठकर गायत्री मंत्र का उच्चारण किया जाना चाहिए।
अगर आपको लगता है कि ब्रह्म मुहुर्त के समय उठना आपके लिए संभव नहीं है, तो सूर्योदय, दोपहर और सूर्यास्त भी शुभ मुहूर्त हैं। यदि आप दिन में केवल एक बार इस मंत्र का जाप कर सकते हैं तो प्रत्येक सप्ताह शुक्रवार इसके लिए सबसे शुभ होता है।
गायत्री मंत्र का जप शुरू करने से पहले प्राणायाम अवस्था में बैठें। अपनी सांस की गति को नियंत्रित करें। इसके बाद गायत्री मंत्र का जाप करें।
इस मंत्र का जाप उगते सूरज के सामने पूर्व की ओर मुख करके किया जाना चाहिए और शाम को पश्चिम की ओर यानी डूबते सूरज की ओर मुंह करके किया जाना चाहिए।
गायत्री मंत्र का जाप कभी जल्दबाजी में नहीं किया जाना चाहिए। इसका जप करते समय, प्रत्येक पंक्ति के अंत में और प्रत्येक पुनरावृत्ति के अंत में थोड़ा रुकें।
वैसे तो गायत्री मंत्र को कम से कम तीन बार पुनरावृत्ति की सलाह दी जाती है। आप चाहें तो इससे ज्यादा बार भी इसे दोहरा सकते हैं।
परंपरागत रूप से, गायत्री मंत्र को मन में उच्चारित किया जाता है। आप चाहें तो इसे मंद स्वर में भी दोहरा सकते हैं।
यदि किसी कारणवश आप इस मंत्र का जाप सूर्योदय के सामने नहीं कर पा रहे हैं, तो इस मंत्र का जाप करते समय आपको अपने मन में सूर्योदय या समूचे ब्रह्मांड में बिखर रही सूर्य की किरणों के बारे में सोचना चाहिए। ऐसा आप तभी कर पाएंगे, जब अपने मन पर आपका पूरा नियंत्रण होगा। इस तरह सूर्य का प्रकाश आपके मन में समाहित होगा और आपको इस मंत्र का आशीर्वाद प्राप्त होगा।
महत्वपूर्ण गायत्री मंत्र
1.गायत्री मंत्र
गायत्री मंत्र है:
|| ॐ भूर्भुवः स्वः
तत्सवितुर्वरेण्यम
भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात् ||
अर्थ- हे दिव्य माता, हमारे भीतर अंधकार भर गया है। कृपया इस अंधेरे को दूर कर हमारे जीवन में रोशनी भरो।
गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय ब्रह्म मुहूर्त के दौरान
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें रोजाना 10, 100, या 1000 बार
गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस और मुख करके जाप करें सूरज के सामने
2.सरस्वती गायत्री मंत्र
सरस्वती गायत्री विशेष रूप से देवी सरस्वती की पूजा करने और उनका आशीर्वाद पाने के लिए किया जाता है। सामान्यत: इस मंत्र का जाप वसंत पंचमी के दिन करना शुभ माना जाता है। यह लोगों को शिक्षा, कला और अन्य रचनात्मक क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन करने में मदद करता है। इसके अलावा, ज्ञानवर्धन के लिए इस मंत्र का जप किया जाता है। विद्यार्थियों के लिए यह गायत्री मंत्र बहुत सहायक होता है। यह छात्रों को शांत रखता है। साथ ही छात्रो के मन को मजबूत बनाता है ताकि वह किसी भी तरह की अड़चनों का सामना करन सकें और खुद को मजबूत बना सकें। इसके अलावा, सरस्वती गायत्री मंत्र छात्रों की क्षमताओं में विस्तार करता है।
सरस्वती गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ सरस्वत्यै विद्महे, ब्रह्मपुत्र्यै धीमहि। तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥
अर्थ- मुझे मां सरस्वती का ध्यान करने दो। हे ब्रह्मदेव की पत्नी, मुझे उच्च बुद्धि दो। मेरे मन को प्रकाशित करो।
सरस्वती गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय सुबह
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें 21 दिनों के लिए 64 बार
सरस्वती गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके जाप करें पूर्व दिशा
3.गणेश गायत्री मंत्र
भगवान गणेश नई शुरुआत और जीवन से बाधाओं को दूर करने के लिए जाने जाते हैं। विनायक देव गायत्री मंत्र के कई लाभ हैं। इसलिए, इस मंत्र का नियमित जाप करने से लोगों को सिद्धि प्राप्त होती है। किए गए कार्य में सफलता भी मिलती है। गणेश चतुर्थी या संकष्टी चतुर्थी के दिन भगवान गणेश की पूजा करने के लिए गणेश गायत्री मंत्र का उपयोग किया जाता है। जब आप इस गायत्री मंत्र का जाप करते हैं, तो यह आपको धर्म के पथ पर चलने में मदद करता है। आपके द्वारा किए गए कार्यों में जीत हासिल करने में भी सहायक है। इसके अलावा, वैदिक ज्योतिष में इस मंत्र का जाप करने से जीवन से बाधाएं दूर हो जाती हैं।
गणेश गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ लम्बोदराय विद्महे महोदराय धीमहि तन्नो दंती प्रचोदयात्॥
अर्थ- भगवान गणेश, जिनका उदर बड़ा है, को मैं नमन करता हूं। हे भगवान मुझे बुद्धि दो और मेरे मन को रोशन करो।
॥ ॐ एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दन्ति प्रचोदयात्॥
अर्थ- मुझे एक दंत वाले भगवान का ध्यान करने दो। हे एक दंत वाले प्रभु, आप मुझे ज्ञान दो और मेरे मन को रोशन करो।
॥ ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दंती प्रचोदयात् ॥
अर्थ- मैं महापुरुष रूपी गणेश के सामने नतमस्तक हूं। हे प्रभुत आप मुझे बुद्धि दो और मेरे मन को रोशन करो।
गणेश गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय सुबह और/या शाम
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें 51 दिनों के लिए, दिन में 108 बार
गणेश गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके इस मंत्र का जाप करें गणेशजी की मूर्ति के सामने
4.शिव गायत्री मंत्र
शिव गायत्री मंत्र को सबसे शक्तिशाली मंत्रों में से एक माना जाता है। इस मंत्र का जाप करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं और मन की शांति प्राप्त होती है। इस मंत्र के माध्यम से जातक अपने कुकर्मों के लिए भगवान शिव से क्षमा याचना करता है। इस मंत्र का नियमित जाप करने से जीवन से सभी समस्याएं दूर होती हैं। इसके साथ ही ज्योतिष में इस मंत्र का जाप करने से मृत्यु का भय कम होता है। यह लोगों के जीवन में समृद्धि लाता है और लंबे समय तक बीमारियों से मुक्त रखता है। शिव का यह मंत्र आपको मजबूत और आत्मविश्वासी बनाता है। साथ ही आपको आंतरिक शक्ति और ऊर्जा प्रदान करता है।
शिव गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र प्रचोदयात् ॥
अर्थ- मैं भगवान शिव को नमन करता हूं। हे महादेव, मुझे बुद्धि दो और भगवान रूद्र मेरे मन को रोशन करें।
शिव गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय सुबह शाम
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें 9, 11, 51, 108, या 1008 बार
शिव गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके इस मंत्र का जाप करें भगवान शिव की मूर्ति
5.ब्रह्म गायत्री मंत्र
वैदिक ज्योतिष में भगवान ब्रह्मा का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए गायत्री मंत्र का जाप किया जाता है। ब्रह्म गायत्री मंत्र उन लोगों के लिए है जो ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं और चीजों की असलियत के बारे में जानने के इच्छुक होते हैं। यदि आप नियमित रूप से इस मंत्र का पाठ करते हैं, तो इससे आपकी रचनात्मकता में वृद्धि होगी, मानसिक रूप से सक्रिय बनेंगे और उत्पादकता में वृद्धि होगी। चूंकि ब्रह्मा सभी के निर्माता हैं, ऐसे में जो लोग इस गायत्री मंत्र का प्रतिदिन पाठ करते हैं, वे वाक सिद्धि में बेहतर होते हैं। इसके अलावा इस मंत्र के जाप से रचनात्मकता बढ़ती है और प्रतिभा सुधरती है। यह मंत्र विशेषकर वकीलों, लेखकों, शिक्षकों जैसे पेशों से संबंधित लोगों के लिए है।
ब्रह्म गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारूढाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥
अर्थ- मैं भगवान ब्रह्मा को नमन करता हूं, जिसके चार मुख हैं। हंस पर सवार हे प्रभु मुझे बुद्धि दो और मेरे मन को रोशन करो।
॥ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्॥
अर्थ- मैं वेदों के आत्मा के सामने नतमस्तक हूं। प्रभु, जिसके भीतर पूरी दुनिया समाई हैं, मैं आपके समक्ष याचना करता हूं मुझे बुद्धि दो और मेरे जीवन को प्रकाशित करो।
ब्रह्म गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय सूर्योदय, दोपहर और सूर्यास्त
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें 21 दिनों के लिए एक मिनट में 36 और 62 बार
ब्रह्म गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके इस मंत्र का जाप करें भगवान ब्रह्मा की मूर्ति के सामने
6.लक्ष्मी गायत्री मंत्र
महालक्ष्मी या लक्ष्मी गायत्री मंत्र का उच्चारण सौभाग्य, समृद्धि और सुंदरता के लिए किया जाता है। इस मंत्र का नियमित उच्चारण करने से जातक को आजीवन ऊर्जावान बना रहेगा और उसे शक्ति प्राप्त होगी। आमतौर ज्योतिषी इसे विलासिता, सफलता और समाज में मान-प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए उच्चारित करते हैं। देवी लक्ष्मी की प्रार्थना से जातक का आत्मविश्वास प्रबल होता है। मां लक्ष्मी की प्रार्थना करने के लिए विभिन्न भजन गाए जाते हैं। लेकिन इन सबमें सबसे शक्तिशाली लक्ष्मी गायत्री मंत्र है। प्रतिदिन इस मंत्र का उच्चारण करन से तन-मन स्वस्थ रहता है और कई लाभ भी मिलते हैं।
लक्ष्मी गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥
अर्थ- मैं महादेवी के सामने नमन करता हूं। हे भगवान विष्णु की पत्नी, मुझे बुद्धि दो और मां लक्ष्मी मेरे मन को रोशन करो।
लक्ष्मी गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय सुबह
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें एक दिन में 108 × 3 बार
लक्ष्मी गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके इस मंत्र का जाप करें देवी लक्ष्मी की मूर्ति के सामने
7.दुर्गा गायत्री मंत्र
दुर्गा गायत्री मंत्र, एक शक्तिशाली मंत्र है। इस मंत्र का उपयोग मां दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। इस मंत्र का जाप उन लोगों के लिए अच्छा है जो अपने डर से मुक्त होना चाहते हैं। इस मंत्र से आत्मविश्वास बढ़ता है। दुर्गा गायत्री मंत्र बुद्धि और शांति के साथ-साथ समृद्धि और सौभाग्य भी लाता है। नियमित रूप से इस मंत्र का जाप करने से जीवन की परेशानियां और मानसिक समस्याएं दूर होती हैं। यह अच्छे चरित्र और दोषों से मुक्त जीवन के लिए भी उत्तरदायी है। ऐसे में आप इस मंत्र का रोजाना जाप करें। इससे बेहतर इंसान बनने में भी मिलती है। इसके अलावा, यह आपकी जिंदगी की नकारात्मकताओं को दूर कर जीवन को खुशहाल करता है। जब लोग नियमित रूप से दुर्गा गायत्री मंत्र का जाप करते हैं, तो आत्मविश्वास प्रबल होता है, आंतरिक विश्वास बढ़ता है और अंदर से मजबूती का अहसास होता है।
दुर्गा गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ कात्यायन्यै विद्महे, कन्याकुमार्ये च धीमहि, तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥
अर्थ- कात्यायन की पुत्री को मेरा नमन। मां देवी दुर्गा मुझे बुद्धि दो और मेरे मन को रोशन करो।
दुर्गा गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय मंगलवार और शुक्रवार को
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें 9, 11,108, या 1008 बार
दुर्गा गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके जाप करें देवी दुर्गा की मूर्ति के सामने
8. हनुमान गायत्री मंत्र
हनुमान गायत्री मंत्र का जाप मन से डर को दूर भगाने के लिए किया जाता है। इस मंत्र का प्रतिदिन पाठ करने से मन मजबूत होता है। इस मंत्र की मदद से हम अधिक आत्मविश्वास के साथ जीवन में आई परेशानियों और बाधाओं को दूर कर सकते हैं। इसके साथ ही यह मंत्र आपको जीवन में हर परिस्थिति में सकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है। यह गायत्री मंत्र जीवन में बुद्धि, निष्ठा और साहस को भी आकर्षित करता है। यह व्यक्ति को नकारात्मक विचारों से दूर रखता है और उन्हें सही मार्ग की ओर ले जाता है। जो जातक इस मंत्र का संपूर्ण श्रद्धाभाव से जप करते हैं, वे ज्ञाता बनते हैं और जीवन में बेहतरी के लिए उनके समक्ष कई मार्ग खुल जाते हैं। यही नहीं, इस मंत्र के सहयोग से जातक का धैर्य बढ़ता है, जीवन में ध्यान केंद्रित करने में सफल होता है और वह अनुशासन प्रिय हो जाता है।
हनुमान गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि तन्नो हनूमान् प्रचोदयात् ॥
अर्थ- मैं अंजना पुत्र को नमन करता हूं। बलशाली हनुमान मुझे बुद्धि दो और मेरे मन को प्रकाशित करो।
हनुमान गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय मंगलवार और शनिवार
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें 11, 108, या 1008 बार
हनुमान गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके जाप करें भगवान हनुमान की मूर्ति के सामने
नवग्रह के लिए गायत्री मंत्र
1.आदित्य गायत्री मंत्र
आदित्य गायत्री मंत्र या सूर्य गायत्री मंत्र, सूर्य देव को समर्पित एक शक्तिशाली ध्यान मंत्र है। यह व्यक्ति की कुंडली में सूर्य ग्रह के दुष्प्रभाव को दूर करता है। इसलिए, यदि आपकी कुंडली में सूर्य कमजोर है, तो आप इस मंत्र का जाप कर सकते हैं। इससे आपकी कुंडली का सूर्य मजबूत बनेगा और आपको उनका आशीर्वाद प्राप्त होगा। जो लोग इस मंत्र का नियमित उच्चारण करते हैं, उनके जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। साथ ही, संपूर्ण श्रद्धा भाव से इस मंत्र का जाप करने से जीवन में एकाग्रता बढ़ती है। यह मंत्र स्वास्थ्य, समृद्धि और धन में भी वृद्धि करता है। इसके अलावा, जब आप इस गायत्री मंत्र का पाठ करते हैं, तो आपकी आंखों की रोशनी अच्छी होती है और त्वचा संबंधी समस्याओं से छुटकारा मिलता है।
आदित्य गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ भास्कराय विद्महे दिवाकराय धीमहि तन्नो सूर्य: प्रचोदयात्॥
अर्थ- मैं सूर्य देवता को नमन करता हूं। हे प्रभु, दिन के निर्माता, मुझे बुद्धि दो और मेरे मन को रोशन करो।
॥ ॐ अश्वध्वजाय विद्महे पाशहस्ताय धीमहि तन्नो सूर्यः प्रचोदयात्॥
अर्थ- मैं उस देवता को नमन करता हूं, जिसके ध्वज में घोड़ा बना हुआ है। हे प्रभु मुझे बुद्धि दो और मेरे मन को रोशन करो।
आदित्य गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय ब्रह्म मुहूर्त या सूर्य होरा
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें दिन में 108 बार
आदित्य गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके इस मंत्र का जाप करें पूर्व दिशा की ओर
2.चंद्र गायत्री मंत्र
चंद्र गायत्री मंत्र जातक को सुंदर बनता है और समाज में उसकी प्रतिष्ठा को बेहतर करता है। यह मंत्र लोगों को बेहतर मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त करने में मदद करता है, व्यक्ति को साहसी बनाता है और उसमें आत्मविश्वास को बलवती करता है ताकि जातक किसी भी तरह की समस्या से निपटने के लिए खुद को तैयार कर सके। इस मंत्र के माध्यम से जातक जीवन में प्रगति प्राप्त कर सकता है। साथ ही परेशानी से दूर होकर तनावमुक्त जीवन जी सकता है। अत: इस मंत्र का नियमित रूप से उच्चारण करना चाहिए। यह त्वचा संबंधित बीमारियों को दूर करने में भी मदद करता है। इस गायत्री मंत्र के नियमित जाप से आप स्वभाव से सहनशील, भावुक बनते हैं। साथ ही आपको अपने जीवन पर गर्व होता है।
चंद्र गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ क्षीर पुत्राय विद्महे अमृततत्वाय धीमहि तन्नो चंद्र: प्रचोदयात्॥
अर्थ- मुझे दूध के पुत्र को नमन करता हूं। अमृत ​​का सार, मुझे बुद्धि दो और हे प्रभु चंद्रमा मेरे मन को रोशन करो।
॥ ॐ पद्मद्वाजय विद्महे हेम रूपायै धीमहि तन्नो चन्द्र: प्रचोदयात्॥
अर्थ- मैं उस भगवान को नमन करता हूं, जिनके ध्वज में कमल है। सुनहरे रंग के भगवान चंद्रमा मुझे बुद्धि दो और मेरे मन को रोशन करो।
चंद्र गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय शुक्ल पक्ष का सोमवार
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें 18 × 108 बार
चंद्र गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके इस मंत्र का जाप करें उत्तर पश्चिम दिशा की ओर
3.अंगारक गायत्री मंत्र
मंगल गायत्री मंत्र लोगों को उनकी कुंडली में नकारात्मक या बीमार मंगल से छुटकारा दिलाने में मदद करता है। आमतौर पर मंगल का प्रजनन क्षमता के साथ गहरा संबंध है। साथ ही यह साहस भी प्रदान करता है। अत: यदि आप आत्मविश्वासी बनना चाहते हैं, तो नियमित इस मंत्र का जाप करें। इसके अलावा, इस मंत्र की मदद से आप कई बीमारियों से छुटकारा पा सकते हैं। इस मंत्र को न्यूनतम 4-5 वर्षों तक नियमित जाप करने से कर्ज से मुक्ति मिलती है और जीवन में सफलता के शिखर पर पहुंचने में भी मदद मिलती है। यह मंत्र न सिर्फ जातक की इच्छाओं और सहनशक्ति में सुधार करता, बल्कि दुर्घटना होने से पहले उसे टाल देता है। इस गायत्री मंत्र का नियमित जाप करने से शत्रुओं पर भी विजय हासिल कर सकते हैंं।
अंगारक गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ वीरध्वजाय विद्महे विघ्नहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात् ॥
अर्थ- मैं उस प्रभु को नमन करता हूं जिसके ध्वज में नायक बना है। मैं उस प्रभु के समक्ष नतमस्तक हूं जिसके पास सभी समस्याओं को हल करने की शक्ति है। हे भगवन मुझे बुद्धि दो, पृथ्वी के पुत्र मेरे मन को रोशन करो।
अंगारक गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय मंगलवार को सूर्योदय के समय
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें प्रतिदिन 11 माला
अंगारक मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके इस मंत्र का जाप करें मंगल यंत्र के सामने
4.बुध गायत्री मंत्र
बातचीत के बेहतर कौशल और बुद्धि प्राप्त करने के लिए बुध गायत्री मंत्र का उच्चारण किया जाता है। ज्ञान के प्राप्त करने के इच्छुक लोगों को नियमित इस मंत्र का जाप करना चाहिए। इस मंत्र की मदद से जीवन में संतुलन कायम होता है और रिश्तों में बेहतर सामंजस्य बैठाने में भी मदद करता है। वैदिक ज्योतिष में, यदि आप इस मंत्र का जाप करते हैं, तो आप अपने डर पर विजयी हासिल कर साहसी बन जाते हैं। साथ ही, आपको कई स्वास्थ्य समस्याओं का निवारण मिलता है। इस मंत्र का खासतौर पर आंखों से संबंधित बीमारियों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इसके अला उच्च रक्तदाब और मधुमेह जैसी स्वास्थ्य संबंधी बीमारियां भी इस मंत्र के उच्चारण से ठीक होती हैं। यदि आपकी कुण्डली में बुध कमजोर या अशुभ ग्रह है तो इस मंत्र का जाप करना आपके लिए सहायक सिद्ध हो सकता है।
बुद्ध गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ गजध्वजाय विद्महे सुखहस्ताय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात् ॥
अर्थ- मैं उसे नमन करता हूं, जिसके ध्वज में हाथी बना है। हे प्रभु मैं आपको नमन करता हूं, आपमें सबको सुख देने की शक्ति है, मुझे बुद्धि दो और मेरे मन को प्रकाश्वान करो।
बुध गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय बुधवार को सुबह और सूर्यास्त के समय
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें 11 बार
बुध गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके इस मंत्र का जाप करें बुध यंत्र के सामने
5.गुरु गायत्री मंत्र
बेहतर शिक्षा प्राप्त करने हेतु गुरु गायत्री मंत्र का उच्चारण किया जाता है। जो उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें नियमित इस मंत्र का जाप करना चाहिए। इस मंत्र की मदद से विद्यार्थी का अध्ययन में मन लगता है और उसकी एकाग्र क्षमता बेहतर होती है। वैदिक ज्योतिष में यदि आप इस मंत्र का नियमित जाप करते हैं, तो आपकी दांपत्य जीवन बेहतर होता है और आपको अपने जीवन में संतुष्टि का अनुभव भी होता है। यही नहीं, संतान सुख की प्राप्ति भी होती है। इसके अलावा यदि आपकी कुंडली में बृहस्पति कमजोर है, तो यह मंत्र उसे बेहतर करने में मदद करता है। बृहस्पति गायत्री मंत्र के साथ भगवान बृहस्पति की स्तुति करने से धन, संतान और समाज प्रतिष्ठा भी मिलती है।
गुरु गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ वृषभध्वजाय विद्महे क्रुनिहस्ताय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात् ॥
अर्थ- मैं गुरु ब्रहस्पती को नमन करता हूं। वह सभी देवताओं के गुरु हैं। आप मुझे बेहतर बुद्धि दो और मेरे मन को रोशन करो।
गुरु गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय सुबह
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें 19,000
गुरु गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके जाप करें गुरु यंत्र के सामने
6.शुक्र गायत्री मंत्र
शुक्र गायत्री मंत्र जातक के कलात्मक क्षमताओं का विस्तार करता है। इस मंत्र की मदद से प्रजनन क्षमताएं बेहतर हेाती हैं और कई स्वास्थ्य समसयाएं जैसे गुर्दे संबंधी रोग दूर हो जाते हैं। ये आपको अपने क्षेत्र विशेष में सफलता प्राप्त करने में मदद करता है और सौभाग्य भी प्रदान करता है। इसके अलावा, शुक्र गायत्री मंत्र व्यापार की प्रगति में सहायक है और यह कलत्र दोष (विवाह और वैवाहिक संबंधों में क्लेश का प्रतीक) को दूर करता है। इस मंत्र का नियमित जप करने से वैवाहिक जीवन सुखद और मधुर होता है। घरेलू जीवन शांत होता है और जीवनसाथी संग अच्छे तथा गहरे रिश्ते स्थापित होते हैं। यदि आपकी जन्म कुंडली में शुक्र ग्रह अशुभ या कमजोर है, तो आपको इस मंत्र का नियमित उच्चारण करना चाहिए। यह मंत्र आपके लिए मददगार साबित होगा।
शुक्र गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ अश्वध्वजाय विद्महे धनुर्हस्ताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात् ॥
अर्थ- मैं शुक्र देवता को नमन करता हूं। जिसके हाथ में धनुष है, मैं उस प्रभु के सामने नतमस्त हूं। हे भगवान आप मुझे उच्च बुद्धि दो और मेने मन को प्रकाशित करो।
शुक्र गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय शुक्रवार, जब शुक्र भरणी, पूर्वाफाल्गुनी या पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में हो
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें 108 बार
शुक्र गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके जाप करें शुक्र यंत्र के सामने
7. शनिश्वर गायत्री मंत्र
शनि या शनिवार गायत्री मंत्र भगवान शनि की स्तुति करने और व्यक्ति के जन्म कुंडली में शनि ग्रह के हानिकारक प्रभावों से छुटकारा पाने के लिए किया जाता है। यह लोगों को साढ़े साती के समय होने वाली समस्याओं से निजात पाने में मदद करता है। साथ ही लोगों के जीवन से दुखों और कष्टों को दूर करता है। यह लोगों को चिंता, तनाव और नकारात्मक ऊर्जा से दूर रखता है। अत: आपको नियमित शनि गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए। इससे आप पाप मुक्त हो जाते हैं, अस्थिर मन शांत हो जाता है और परेशानी जीवन से दूर भाग जाती है। शनि महादशा के दौरान भी इस मंत्र का जाप उन लोगों के लिए बेहद शुभ रहेगा जिनकी कुंडली में शनि कमजोर या अशुभ है।
शनिश्वर गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ काकध्वजाय विद्महे खड्गहस्ताय धीमहि तन्नो मन्दः प्रचोदयात् ॥
अर्थ- मैं शनि देव को नमन करता हूं। उनके ध्वज में काक बना है और हाथ में तलवार है। हे प्रभु मुझे बुद्धि दो और मेरे मन को प्रकाशित करो।
शनिश्वर गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय प्रात: काल
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें दिन में 108 बार
शनिश्वर गायत्री मंत्र का पाठ कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके इस मंत्र का जाप करें उत्तर पूर्व या पूर्व
8.राहु गायत्री मंत्र
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार राहु ग्रह को प्रसन्न के लिए राहु गायत्री मंत्र का जप किया जाता है। जिन लोगों की कुंडली में काल सर्प दोष है, वे शुभ फल और आने वाले समय में बेहतरी के लिए इस मंत्र का जाप कर सकते हैं। इसके साथ ही, यदि आप नियमित रूप से इस मंत्र का पाठ करते हैं, तो आप अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। राहु गायत्री मंत्र की मदद से शारीरिक समस्याओं से मुक्ति मिलती है। इसके साथ ही यह मंत्र उन लोगों के लिए सहायक है, जिन्हें जीवन में यकायक अवसर प्राप्त होते हैं। इसके अलावा जीवन से नकारत्मक ऊर्जा को निकाल बाहर करने के लिए यह मंत्र लाभदायक है। यदि आप इस राहु गायत्री मंत्र का नियमित जाप करते हैं, तो आपको अपने कार्यक्षेत्र में सफलता और धन की प्राप्ति हो सकती है। यह आपके भाग्य को उज्जवल करने में भी सहायक है।
राहु गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ नाकध्वजाय विद्महे पद्महस्ताय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात् ॥
अर्थ- मैं राहु देव को नमन करता हूं। उनके हाथ में कमल और ध्वज में सांप बना है। हे प्रभु मुझे अच्छी बुद्धि दो और मेरे जीवन से अंधकार दूर कर रोशनी भरो।
राहु गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय रात के दौरान
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें 40 दिनों में 18,000 बार
राहु गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके इस मंत्र का जाप करें उत्तर दिशा
9.केतु गायत्री मंत्र
वैदिक ज्योतिष में केतु गायत्री मंत्र उन लोगों के लिए है जिनके जीवन में केतु महादशा के कारण कठिनाईयां बढ़ गई हैं। केतु गायत्री मंत्र मानसिक स्थिति को बेहतर करने में मदद करता है। इस मंत्र की सहायता से कुंडली में केतु के सभी नकारात्मक प्रभावों को दूर किया जा सकता है। इसके साथ ही इस केतु गायत्री मंत्र की बदौलत आपमें साहस बढ़ता और आत्मविश्वास प्राप्त होता है। इससे समाज में आपको प्रसिद्धि भी मिलती है। यही नहीं, इस मंत्र की मदद से आप असामयिक दुर्घटनाओं और बीमारियों से दूर रहते हैं। आपके आध्यात्मिक ज्ञान में भी अत्यधिक वृद्धि होती है। इसके अलावा केतु गायत्री मंत्र की वजह से आश्रमों और तंत्रों में भी आपकी गहरी रुचि विकसित होती है। वैदिक ज्योतिष में यह गायत्री मंत्र आपको प्रतिष्ठा और पद में हानि नहीं होने देता। आपको भौतिक धन प्राप्त करने में भी यह मंत्र मदद करता है।
केतु गायत्री मंत्र है:
॥ ॐ अश्वध्वजाय विद्महे शूलहस्ताय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात् ॥
अर्थ- मैं भगवन केतु को नमन करता हूं। उनके ध्वज में घोड़ा बना है और उनके हाथ में त्रिशूल है। हे प्रभु आप मुझे उच्च बुद्धि दो और मेरे मन को प्रकाशित करो।
केतु गायत्री मंत्र का जाप करने का सर्वोत्तम समय सूर्योदय के समय
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें 108 बार
केतु गायत्री मंत्र का जाप कौन कर सकता है? कोई भी
किस ओर मुख करके इस मंत्र का जाप करें केतु यंत्र
गायत्री मंत्र जाप के समग्र लाभ
गायत्री मंत्र एक ऐसी प्रार्थना है जिसका उद्देश्य बौद्धिकता को बढ़ावा देना है। यह मंत्र ज्ञानवर्धक है और जातक को ज्ञान प्राप्त करने की दिशा में जाने के लिए निर्देशित करता है। यह विशेष रूप से छात्रों और किसी भी प्रकार की शिक्षा लेने वाले लोगों के लिए है।
गायत्री मंत्र के जाप से उत्पन्न कंपन चेहरे की त्वचा को सुंदर बनाता है। चूंकि गायत्री मंत्र के उच्चारण के दौरान श्वास गति पर नियंत्रण रखना होता है, इस वजह से यह हमारे श्वास प्रणाली में पर्याप्त वायु का संचार करता है। नतीजतन रक्त वाहिकाओं को पर्याप्त ऑक्सीजन मिलता है, जिससे त्वचा सुंदर बनती है। इसके नियमित उच्चारण से चर्म रोग दूर होते हैं और त्वचा में कांतिमय बनती है।
श्वासगति को नियंत्रित करने वाले मंत्र का उच्चारण करने से पहले प्राणायाम अवस्था में बैठना बहुत जरूरी है। इस अवस्था में बैठने के बाद कुछ देर के लिए अपनी श्वास गति को नियंत्र करने की कोशिश करें। इससे आपके फेफड़े खुलते हैं, जो कि फेफड़े संबंधी रोों से दूर रखते हैं।
गायत्री मंत्र के निरंतर जाप करने से नकारात्मकता दूर होती, समग्र स्वास्थ्य में सुधार होता है और मन में अधिक सकारात्मक विचार उत्पन्न होते हैं।
गायत्री मंत्र का जाप मस्तिष्क को उत्तेजित करता है। यह कोशिकाओं और दिमाग को सकारात्मक सोचने के लिए सक्रिय करता है। यह मन के आध्यात्मिक पहलू को ठीक करता है और तनावपूर्ण मन को शांत करने में उपयोगी है।
इस मंत्र के जाप से चिंता और तनाव भी दूर होता है। यह आज की दुनिया में विशेष रूप से आवश्यक है। दिनों दिन बदलती अर्थव्यवस्था की वजह से लोगों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। इस मंत्र के उच्चारण से चिंता को नियंत्रण में किया जा सकता है।
गायत्री मंत्र का जाप करने से मन शांत होता है। गायत्री मंत्र उच्चारण से ऐसा कंपन उत्पन्न होता है, जो शरीर में चक्रों को चक्रों से ऊर्जा के प्रवाह की अनुमति देता है। यही कारण है कि चिकित्सकों द्वारा अक्सर इस विधि का उपयोग किया जाता है।
गायत्री मंत्र के जाप से बुद्धि तीव्र होती है, सोचने की क्षमता बेहतर होती है। यह सूचनाओं को संग्रहीत करने में भी मदद करता है। कहीं जरूरत पड़ने पर इन संग्रहीत सूचनाओं को प्रभावी ढंग से दूसरों के सामने पेश करने में भी यह मंत्र उपयोगी है।
ऐसा कहा जाता है कि इससे समृद्धि आती है। गायत्री मंत्र का जाप देवी को प्रसन्न करता है। वह अपने भक्तों को नुकसान से बचाती है और उन्हें अच्छे स्वास्थ्य, धन और बुद्धि का आशीर्वाद देती है।
गायत्री मंत्र, किसी के ज्योतिषीय चार्ट से दोषों को दूर करने की शक्ति रखता है। कृपालु देवी अपने भक्तों के साथ बहुत विनम्र है। उनके पसंदीदा मंत्र के माध्यम उनके भक्तों को आजीवन सुखद फल प्राप्त हो सकते हैं।
गायत्री मंत्र के बारे में अधिक जानने के लिए आप हमारे ज्योतिषियों से बात कर सकते हैं।
महा मृत्युंजय मंत्र
महा मृत्युंजय मंत्र: अर्थ, महत्व और लाभ
महामृत्युंजय मंत्र (Mahamrityunjaya mantra) हिंदू धर्म के ऋग्वेद से है और इसे सबसे शक्तिशाली शिव मंत्र माना जाता है। इसे ॐ त्र्यम्बकं मंत्र भी कहा जाता है। यह मंत्र लंबी आयु देता है और अकाल मृत्यु को टालता है। साथ ही कठिन परिस्थितियों से भी बचाता है। इस मंत्र के जाप से भय खत्म होता है, क्योंकि यह आत्मा को शांत करता है और जातक को मजबूत बनाता है। महामृत्युंजय मंत्र के नियमित जाप से जातक सुरक्षित महसूस करता है।
यह भी माना जाता है कि महामृत्युंजय मंत्र (Mahamrityunjaya mantra) का जाप करने से शारीरिक बीमारियां कम होती हैं और शरीर स्वस्थ रहता है। हर धर्म में मंत्रों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। इसने समय की यात्रा की ताकि सबसे आधुनिक लोगों द्वारा इसका उपयोग किया जा सके। ये मंत्र भक्तों को शांति और सांत्वना देते हैं। हिंदू धर्म के लिए, मंत्र बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि उनका उपयोग हर धार्मिक अनुष्ठान में बड़े या छोटे आयोजनों के लिए किया जाता है।
महा मृत्युंजय मंत्र
महामृत्युंजय मंत्र: उत्पत्ति और इतिहास (Mahamrityunjay Mantra: Origin and history in hindi)
ऋषि मृकंदु और मरुदमती दोनों भगवान शिव के भक्त थे। उन्होंने भगवान शिव की लंबी तपस्या की और वर्षों तक पुत्र की कामना की थी। भगवान शिव ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उनकी इच्छा पूर्ण की। लेकिन भगवान शिव ने उनके सामने एक शर्त रखी। शर्त के रूप में भगवान शिव ने उनके सामने दो विकल्प रखे। पहला विकल्प, उन्हें एक ऐसा बेटा होगा, जिसकी अल्पायु होगी मगर वह बुद्धिमान होगा। दूसरा विकल्प, उन्हें एक ऐसा बेटा होगा, जिसकी जिंदगी तो लंबी होगी पर वह कम बुद्धिमान होगा। ऋषि मृकंदु और मरुदमती ने पहले विकल्प को चुना। उनकी बेटे प्राप्ति की इच्छा पूर्ण हुई। हालांकि उन्हें यह सूचित कर दिया कि उनका पुत्र केवल सोलह वर्ष ही जीवित रहेगा। इस दंपति ने अपने पुत्र का नाम मार्कंडेय रखा, जो वह सब कुछ था, जिसकी ऋषि मृकंदु और मरुदमती ने इच्छा की थी। अपने पुत्र को सुखी जीवन देने के लिए ऋषि मृकंदु और मरुदमती ने उसके जीवनकाल के बारे में तथ्य को गुप्त रखने का फैसला किया। जब मार्कंडेय का 16वां जन्मदिन आया, तब उनके माता-पिता बेहद विचलित हो गए। वे दोनों बहुत दुखी हो गए। इतने दुखी के मार्कंडेय उनके दुख को समझ नहीं पाया। उसने अपने माता-पिता से उनके दुख का कारण पूछा तो ऋषि मृकंदु और मरुदमती ने उसे उसके भाग्य की पूरी कहानी बताई और यह भी कि उसका जन्म कैसे हुआ।
अपने जीवनकाल की पूरी कहानी सुनने के बाद मार्कंडेय ने भगवान शिव की तपस्या शुरू कर दी। जब यम उनकी आत्मा को लेने आए, तब उन्होंने शिवलिंग को गले से लगा लिया। मार्कंडेय की भक्ति और उनके प्रति प्रेम को देखकर भगवान शिव प्रकट हुए और यम को मार्कंडेय को छोड़ने का आदेश दिया। फिर उन्होंने मार्कंडेय को विशेष “महा मृत्युंजय मंत्र” दिया जो उन्हें लंबा जीवन जीने में मदद करेगा। मृत्यंजय मंत्र (Mahamrityunjaya mantra) से संबंधित कई अन्य कहानियां भी हैं। एक कहानी के अनुसार चंद्र देव ने राजा दक्ष की 27 बेटियों से विवाह किया था। लेकिन चंद्र देव उनकी बेटी रोहिणी का ही ज्यादा ध्यान रखते थे। इस कारण बाकी बेटियों को रोहिणी से ईर्ष्या होने लगी। वे अपनी इस शिकायत को अपने पिता के समक्ष ले गए। चिंतित पिता ने चंद्र देव को समझाया कि वे सबको बराबर स्नेह-प्यार दे। लेकिन चंद्र देव नहीं समझे। क्रोधित होकर उनके स्वसुर ने चंद्र देव को श्राप दिया कि उन्हें जिस रंग-रूप और तेज पर इतना अभिमान है, वह एक दिन खत्म हो जाएगा। इस श्राप से मुक्त होने के लिए चंद्र देव ने भगवान शिव की उपासना की। भगवान शिव उनकी उपासना से प्रसन्न हुए। उन्होंने चंद्रमा को दर्शन भी दिए। लेकिन उन्होंने चंद्रमा से कहा कि वह राजा दक्ष के द्वारा दिए गए श्राप को वह पूरी तरह विफल नहीं कर सकते। हालांकि इसके प्रभाव को कम अवश्य किया जा सकता है। तभी से चंद्र देव की चमक 15 में बढ़ती और घटती है।
मृत्युंजय मंत्र (Mahamrityunjaya mantra) को रुद्र मंत्र भी कहा जाता है, शिव के क्रोधी पहलू का जिक्र करते हुए, त्र्यम्बकं मंत्र, भगवान शिव की तीन आंखों का जिक्र करते हुए, और मृत-संजीवनी मंत्र, जो ऋषि शुक्राचार्य को दी गई ‘जीवन-पुनर्स्थापना’ का एक हिस्सा है। इस मंत्र का हिंदू वेदों में तीन बार उल्लेख किया गया है, ऋग्वेद (VII.59.12), यजुर्वेद (III.60), और अथर्ववेद (XIV.1.17)।
महामृत्युंजय मंत्र: वे कैसे मदद करते हैं (Mahamrityunjay Mantra: How do they help in hindi)
गायत्री मंत्रों की तरह, महामृत्युंजय मंत्र (Mahamrityunjaya mantra) हिंदुओं के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण और शक्तिशाली मंत्र है। यह मजबूत मंत्र भगवान शिव को समर्पित है। धार्मिक रूप से इस मंत्र का जप करने से बीमारी और मृत्यु का भय कम हो जाता है। महामृत्युंजय मंत्र का अस्तित्व सबसे पहले ऋग्वेद के माध्यम से खोजा गया था और ऋषि मार्कंडेय द्वारा मानव जाति के लिए इस मंत्र को लाया गया था।
माना जाता है कि इस मंत्र में विशेष शक्तियां हैं, जो मानसिक स्वास्थ्य को अच्छा रखती है और भावनात्मक-शारीरिक संतुलन बनाए रखती है। इस मंत्र का जाप करने से एक प्रकार की अमरता भी प्राप्त होती है, जो दूसरे शब्दों में आयु को बढ़ाती है और अकाल मृत्यु की आकांक्षा को कम करती है।
विभिन्न कहानियां, महामृत्युंजय मंत्र (Mahamrityunjaya mantra) की कहानी और उसके बनने के तरीके को दर्शाती हैं। ऋषि मार्कंडेय की कहानी पर गौर करें तो उन्हें अल्पायु के लिए जीवन मिला था। लेकिन उन्होंने भगवान शिव की उपासना की और अपने भाग्य को बदल दिया। इसके बाद से महामृत्युंजय मंत्र को मृत्यु पर विजय प्राप्त के लिए जाना जाने लगा। इसी तरह राजा दक्ष द्वारा चंद्र देव को कैसे श्राप दिया गया था, और उनकी जान बचाने के लिए कैसे इस मंत्र का जाप किया गया था, यह भी लोकप्रिय कहानी है।
महामृत्युंजय मंत्र है:
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥
अर्थ-
ॐ : ओंकार के रूप में भगवान शिव
त्र्यम्बकं : आप तीन नेत्रों के साथ सुंदर हैं
यजामहे : हम आपकी पूजा करते हैं, हमारे जीवन को खुश रखें
सुगन्धिं : सुगंधित, हम अपकी भक्ति की सुगंध में हैं
पुष्टिवर्धनम्: खुशी बढ़ाएं
उर्वारुकमिव : जिस तरह से फल आसानी से
बन्धनान् : वृक्ष के बंधन से मुक्त होता है
मृत्यरोमुक्षीय : हमें मृत्यु के बंधन से मुक्त करें
मामृतात् : मुझे अमृत का दर्जा दो
“हम भगवान शिव की पूजा करते हैं। तीन आंखों वाले भगवान शिव सभी प्राणियों का पोषण करते हैं। आप हमें उसी प्रकार बंधन से मुक्त करें जिस तरह एक फल अपनी शाखा से अलग होता है ताकि हम अमरता को प्राप्त हो सकें।”
महा मृत्युंजय मंत्र भगवान शिव का सबसे प्रिय मंत्र है। वह मृत्यु के विजेता हैं। इस मंत्र का ऋग्वेद में उल्लेख किया गया है, जो सबसे पुराने हिंदू मंत्रों में से है। इसका उल्लेख ऋग्वेद के सातवें मंडल के सूक्त 59 में मिलता है।
महामृत्युंजय मंत्र का जाप कैसे करें (How to chant the Mahamrityunjaya Mantra in hindi)
रुद्राक्ष जपमाला की मदद से भगवान शिव के महामृत्युंजय मंत्र (Mahamrityunjaya mantra) का 108 बार जाप करें। मंत्र उच्चारण करते हुए शिवलिंग पर फूल चढ़ाएं और दूध से अभिषेक करें।
सर्वोत्तम परिणामों के लिए महामृत्युंजय मंत्र का 1.25 लाख बार जाप करने की सलाह दी जाती है। लेकिन इसे एक दिन में करना संभव नहीं है। इसलिए इस मंत्र का दिन में 1000 बार जाप करने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार 125 दिन में कुल सवा लाख मंत्र का जाप पूरा हो जाएगा।
मंत्र का जाप प्रात:काल में ही करना चाहिए। दोपहर के समय इस मंत्र का जाप नहीं करना चाहिए।
भगवान शिव की कृपा पाने के लिए एक बर्तन में पानी रखकर संकल्प करें।
भगवान शिव को दीपम, जल, फूल, बेलपत्र, फल और अगरबत्ती अर्पित की जाती है और महामृत्युंजय मंत्र के पाठ के बाद हवन किया जाता है। मंत्र जाप के बाद हर बार हवन करना जरूरी नहीं है।
मंत्र के कर्ता को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी भी मांसाहारी भोजन का सेवन न करें।
महामृत्युंजय मंत्र के जाप के समग्र लाभ (Overall benefits of chanting the Mahamrityunjaya mantra in hindi)
मृत्युंजय मंत्र (Mahamrityunjaya mantra) के नियमित जाप से व्यक्ति अपने परिवार की रक्षा की कामना करता है। यह मंत्र उनके अच्छे स्वास्थ्य और परिवार के कल्याण का आश्वासन देता है। यह एक स्वस्थ मानसिकता और भावनात्मक क्षमता प्रदान करता है।
यह मंत्र कलाकार के जीवन की लंबी उम्र को बढ़ाता है, उनके बीमारी और मृत्यु के भय को कम करता है। जातक के जीवन को सुख-समृद्धि से भर देता है।
मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को संतुलित रखने के साथ-साथ, महा मृत्युंजय मंत्र उपासक के स्वास्थ्य को फिर से जीवंत और पोषित करता है। किसी भी तरह की बीमारी और बुरी आदतों को दूर करके उनके तनाव को कम करता है।
भगवान शिव को हिंदू धर्म का सबसे दयालु देवता माना जाता है, उन्हें प्रसन्न करना बहुत आसान है। उन्हें प्रसन्न करने के लिए केवल उनके प्रति समर्पित होने की जरूरत है। इसके अलावा किसी भी अनुष्ठान में या मंत्र को उच्चारित करते हुए मन स्वच्छ तथा पवित्र रखें। भगवान शिव आपसे सहज ही प्रसन्न हो जाएंगे।
महामृत्युंजय मंत्र (Mahamrityunjaya mantra) के नियमित जाप से स्वयं भगवान शिव जातक को और उसके परिवार को सुरक्षा का आशीर्वाद देते हैं। जातक को हर तरह की नकारात्मक ऊर्जा और किसी दुर्घटना में होने वाली अचानक मृत्यु से सुरक्षा मिलती है।

मानव शरीर एक देवालय (मंदिर) है।

मानव शरीर एक देवालय (मंदिर) है।

ईश्वर ने अपनी माया से चौरासी लाख योनियों की रचना की लेकिन जब उन्हें संतोष न हुआ तो उन्होंने मनुष्य शरीर की रचना की।
मनुष्य शरीर की रचना करके ईश्वर बहुत ही प्रसन्न हुए क्योंकि मनुष्य ऐसी बुद्धि से युक्त है जिससे वह ईश्वर के साथ साक्षात्कार कर सकता है।
मानव शरीर एक देवालय (मंदिर) है।
मानव शरीर एक देवालय (मंदिर) है।
हमारे ज्ञानवान पाठक जानते हैं कि मानव शरीर एक देवालय है। ईश्वर ने पंचभूतों (आकाश ,वायु ,अग्नि भूमि और जल ) से मानव शरीर का निर्माण कर उसमें भूख-प्यास भर दी।
आकाश की सूक्ष्म शरीर से, भूमि की हड्डियों, flesh से और अग्नि की body heat के साथ तुलना की गयी है।
देवताओं ने ईश्वर से कहा कि हमारे रहने योग्य कोई स्थान बताएं जिसमें रह कर हम अपने भोज्य-पदार्थ का भक्षण कर सकें। देवताओं के आग्रह पर जल से गौ और अश्व बाहर आए पर देवताओं ने यह कह कर उन्हें ठुकरा दिया कि यह हमारे रहने के योग्य नहीं हैं।

जब मानव शरीर प्रकट हुआ तब सभी देवता प्रसन्न हो गए।

तब ईश्वर ने कहा—अपने रहने योग्य स्थानों में तुम प्रवेश करो ।
तब सूर्य नेत्रों में ज्योति (प्रकाश) बन कर,
वायु छाती और नासिका-छिद्रों में प्राण बन कर,
अग्नि मुख में वाणी और उदर में जठराग्नि बन कर,
दिशाएं श्रोत्रेन्द्रिय (सुनना ) बन कर कानों में,
औषधियां और वनस्पति लोम (रोम) बन कर त्वचा में,
चन्द्रमा मन होकर हृदय में,
मृत्यु (मलद्वार) होकर नाभि में,
जल देवता वीर्य होकर पुरुषेन्द्रिय में प्रविष्ट हो गए।
तैंतीस देवता अंश रूप में आकर मानव शरीर में निवास करते हैं ।

उपनिषद् का निम्नलिखित कथानक मानव शरीर के देवालय होने की पुष्टि करता है :

हमारा शरीर भगवान का मंदिर है। यही वह मंदिर है, जिसके बाहर के सब दरवाजे बंद हो जाने पर जब भक्ति का भीतरी पट खुलता है, तब यहां ईश्वर ज्योति रूप में प्रकट होते हैं और मनुष्य को भगवान के दर्शन होते हैं।

आइये देखें मानव शरीर में कौन कौन से देवताओं का वास है और उनके कार्य क्या हैं :

संसार में जितने देवता हैं, उतने ही देवता मानव शरीर में “अप्रकट” रूप से स्थित हैं, किन्तु दस इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कर्मेन्द्रियां) के और चार अंतकरण (भीतरी इन्द्रियां—बुद्धि, अहंकार, मन और चित्त) के अधिष्ठाता देवता प्रकट रूप में हैं। इस सभी इन्द्रियों का टोटल किया जाये तो 14 बनता है।
आइए इन देवताओं के बारे में संक्षेप में जानकारी प्राप्त करें ,इतनी संक्षेप में कि साधारण मनुष्य को भी समझ आ जाये। सभी कठिन शब्दों को सरल करने का प्रयास तो किया है लेकिन जिनका सरलीकरण नहीं किया गया है वह केवल इस लिए कि सरलीकरण के बाद और अधिक कठिनता देखी गयी थी।

1. नेत्रेन्द्रिय (चक्षुरिन्द्रिय) के देवता—

 भगवान सूर्य नेत्रों में निवास करते हैं और उनके अधिष्ठाता देवता हैं; इसीलिए नेत्रों के द्वारा किसी के रूप का दर्शन सम्भव हो पाता है । नेत्र विकार में चाक्षुषोपनिषद्, सूर्योपनिषद् की साधना और सूर्य की उपासना से लाभ होता है ।

2. घ्राणेन्द्रिय (नासिका) के देवता—

नासिका के अधिष्ठाता देवता अश्विनीकुमार हैं । इनसे गन्ध का ज्ञान होता है ।

3. श्रोत्रेन्द्रिय (कान) के देवता—

श्रोत-कान के अधिष्ठाता देवता दिक् देवता (दिशाएं) हैं । इनसे शब्द सुनाई पड़ता है ।

4. जिह्वा के देवता—

जिह्वा में वरुण देवता का निवास है, इससे रस का ज्ञान होता है ।

5. त्वगिन्द्रिय (त्वचा) के देवता—

त्वगिन्द्रिय के अधिष्ठाता वायु देवता हैं । इससे जीव स्पर्श का अनुभव करता है ।

6. हस्तेन्द्रिय (हाथों) के देवता—

मनुष्य के अधिकांश कर्म हाथों से ही संपन्न होते हैं । हाथों में इन्द्रदेव का निवास है ।

7. चरणों के देवता

चरणों के देवता उपेन्द्र (वामन, श्रीविष्णु) हैं । चरणों में विष्णु का निवास है ।

8. वाणी के देवता—

जिह्वा में दो इन्द्रियां हैं, एक रसना जिससे स्वाद का ज्ञान होता है और दूसरी वाणी जिससे सब शब्दों का उच्चारण होता है । वाणी में सरस्वती का निवास है और वे ही उसकी अधिष्ठाता देवता हैं ।

9. उपस्थ (मेढ़ू) के देवता—

इस गुह्येन्द्रिय के देवता प्रजापति हैं । इससे प्रजा की सृष्टि (संतानोत्पत्ति) होती है ।

10. गुदा के देवता—

इस इन्द्रिय में मित्र, मृत्यु देवता का निवास है । यह मल निस्तारण कर शरीर को शुद्ध करती है ।

11. बुद्धि इन्द्रिय के देवता—

बुद्धि इन्द्रिय के देवता ब्रह्मा हैं । गायत्री मंत्र में सद्बुद्धि की कामना की गई है इसीलिए यह ‘ब्रह्म-गायत्री’ कहलाती है । जैसे-जैसे बुद्धि निर्मल होती जाती है, वैसे-वैसे सूक्ष्म ज्ञान होने लगता है, जो परमात्मा का साक्षात्कार भी करा सकता है ।

12. अहंकार के देवता—

अहं के अधिष्ठाता देवता रुद्र हैं । अहं से ‘मैं’ का बोध होता है ।

13. मन के देवता—

मन के अधिष्ठाता देवता चन्द्रमा हैं । मन ही मनुष्य में संकल्प-विकल्प को जन्म देता है । मन का निग्रह परमात्मा की प्राप्ति करा देता है और मन के हारने पर मनुष्य निराशा के गर्त में डूब जाता है ।

14. चित्त के देवता—

प्रकृति-शक्ति, चिच्छत्ति ही चित्त के देवता हैं । चित्त ही चैतन्य या चेतना है । शरीर में जो कुछ भी स्पन्दन (चलन, चेतना) होती है, सब उसी चित्त के द्वारा होती है ।
भगवान ने ब्रह्माण्ड बनाया और समस्त देवता आकर इसमें स्थित हो गए, किन्तु तब भी ब्रह्माण्ड में चेतना नहीं आई और वह विराट् मनुष्य उठा नहीं। जब चित्त के अधिष्ठाता देवता ने चित्त में प्रवेश किया तो विराट् पुरुष उसी समय उठ कर खड़ा हो गया। इस प्रकार भगवान संसार में सभी क्रियाओं का संचालन करने वाले देवताओं के साथ इस शरीर में विराजमान हैं
अब मनुष्य का कर्तव्य है कि वह भगवान द्वारा बनाए गए इस देवालय को कैसे साफ-सुथरा रखे ?

इसके लिए निम्न कार्य किए जाने चाहिए:

  • नकारात्मक विचारों और मनोविकारों-काम,क्रोध,लोभ,मोह,ईर्ष्या,अहंकार से दूर रहे ।
  •  योग साधना, व्यायाम व सूर्य नमस्कार करके अधिक-से-अधिक पसीना बहाकर शरीर की आंतरिक गंदगी दूर करें ।
  •  अनुलोम-विलोम व सूक्ष्म क्रियाएं करके ज्यादा-से ज्यादा शुद्ध हवा का सेवन करे ।
  • शुद्ध सात्विक भोजन सही समय पर व सही मात्रा में करके पेट को साफ रखें ।
नीचे दिए गए विवरण को पढ़ते समय आप सोच रहे होंगें कि ऊपर दी गयी जानकारी रिपीट हो रही है। हाँ कुछ तथ्य रिपीट अवश्य हो रहे हैं लेकिन इनका अध्ययन करना लाभदायक ही होगा।
हम जानते हैं कि मनुष्य का शरीर एक देवालय है। इस देवालय के आठ चक्र और नौ द्वार हैं। अर्थववेद में कहा गया है-
“अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या,तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः”
जिसका अर्थ है कि आठ चक्र और नौ द्वारों वाली अयोध्या देवों की पुरी है, उसमें प्रकाश वाला कोष है जो आनन्द और प्रकाश से युक्त है अर्थात आठ चक्रों और नौ द्वारों से युक्त यह देवों की अयोध्या नामक नगरी है।
विज्ञान के अनुसार मनुष्य का जन्म माता-पिता के संयोग से संभव हो पाता है।
लेकिन क्या केवल संयोग से ही मनुष्य की रचना हो जाती हैं, बिलकुल नहीं ! इसके लिए देवी-देवताओं का सहयोग भी होता है। 33 कोटी के देवी-देवता जैसे कि सूर्य, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, चन्द्र आदि हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है।
हमारी माता के गर्भ में ये देव अपने एक-एक अंश से बच्चा पैदा करने और उसका पालन पोषण करने में सहयोग करते हैं।
ज़रा कल्पना करें कि अगर वायुदेव माँ के गर्भ में न पहुंच पाए तो क्या गर्भ में जीवन संभव हो सकता है। यही बात जल की है,यही बात अग्नि आदि देवों के बारे में भी लागू होती है। इन सभी देवों को एक-एक करके समझने के लिए तो विज्ञान और अध्यात्म की बैकग्राउंड होनी चाहिए ,अग्निदेव का अर्थ यह कदापि न लिया जाए कि माँ के गर्भ में कोई स्टोव या भट्टी स्थापित है और वह बच्चे के लिए खाना पका रही है। बेसिक साइंस का ज्ञान बताता है कि भोजन का पचना (digestion),उससे रक्त का बनना, एनर्जी का पैदा होना एक प्रकार का combustion/ burning/ignition process है।

अथर्ववेद के 5वें कांड में लिखा है:

सूर्य मेरी आँखें हैं, वायु मेरे प्राण हैं,अन्तरिक्ष मेरी आत्मा है और पृथ्वी मेरा शरीर है। इस तरह दिव्यलोक का सूर्य, अंतरिक्ष लोक की वायु और पृथ्वी लोक के पदार्थ क्रमशः मेरी आँखें और प्राण स्थूल शरीर में आकर रह रहे है और हाथ जो तीनों लोकों के सूक्ष्म अंश हैं, हमारे शरीर में अवतरित हुए हैं।
            इसीलिए ज्ञानी मनुष्य मानव शरीर को ब्रह्म मानता है क्योंकि सभी देवता इसमें वैसे ही रहते हैं जैसे गोशाला में गायें रहती हैं। माँ के गर्भ में 33 देवता अपने-अपने सूक्ष्म अंशों से रहते हैं परन्तु यह गर्भ तभी स्थिर (ठोस) होने लगता है जब परमात्मा अपने अंश से गर्भ में जीवात्मा को अवतरित करते हैं | उस समय सभी देवता गर्भ में उस परमात्मा की स्तुति करते हैं और उसकी रक्षा व् वृद्धि करते है | सभी देवता प्रार्थना करते हैं कि- हे जीव ! आप अपने साथ अन्य जीवों का भी कल्याण करना,परन्तु जन्म के समय के कठिन कष्ट के कारण मनुष्य इन बातों को भूल जाता है |
वेद का मंत्र हमें यह स्मरण दिलाता है मैं अमर अथवा अदम्य शक्ति से युक्त हूँ। हमारा शरीर ऐसा दिव्य और मनोहारी मनुष्य शरीर होता है। तभी तो उपनिषदों में ऋषियों का अमर संदेश गूंजता है: अहं ब्रह्मास्मि तत्वमसि | इसी तरह सभी जीवों की उत्पत्ति होती है। अतः देवता यह घोषणा करते हैं कि सृष्टि का हर प्राणी परमात्मा का ही अंश है इसलिए हम सभी को इसी भगवानमय दृष्टि से एक दूसरे को देखना चाहिए।
           इस वाक्य को पढ़कर आज के मानव पर घृणा तो आती है कि हमारे वेद, पुराण, उपनिषद ,देवता क्या शिक्षा देते हैं, कैसे इतने परिश्रम से सृष्टि की स्थापना करते हैं,लेकिन मानव महामानव और देवमानव बनने के बजाय दैत्यमानव बनने में कोई कसर नहीं छोड़ता। शायद उस मानव को यह नहीं मालूम की सृष्टि के नियम, विधाता की अदालत में एक-एक प्राणी के एक-एक कर्म का लेखा लिखा जा रहा है। कर्म अपने कर्ता को ढूंढ ही निकालता है, सज़ा या इनाम मिल कर ही रहते हैं। कर्म की थ्योरी इतनी strong है कि इससे तो देवता क्या भगवान तक भी बच नहीं पाए।
     तो क्यों ना हम आज से ही अपने ऊपर कुछ विशेष ध्यान दें और अपने भीतर की यात्रा शुरू करें। शीघ्र ही हम 
आनंदित और अचंभित अनुभव प्राप्त करेंगे।

श्राद्ध – ऋण कितने प्रकार के होते हैं ? 5 ऋण दोष

 श्राद्ध – ऋण कितने प्रकार के होते हैं ? 5 ऋण दोष

श्रद्धा पूर्वक हम जो करते हैं वही श्राद्ध हो जाता है हमारे ऊपर मुख्य रूप से 5 ऋण होते हैं जिनका कर्म न करने
(ऋण न चुकाने पर ) हमें निश्चित रूप से श्राप मिलता है ,
ये ऋण हैं : मातृ ऋण, पितृ ऋण, मनुष्य ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण ।
श्राद्ध - ऋण कितने प्रकार के होते हैं ? 5 ऋण दोष
श्राद्ध – ऋण कितने प्रकार के होते हैं ? 5 ऋण दोष

1 मातृ ऋण :

माता एवं माता पक्ष के सभी लोग जिनमें मामा, मामी , नाना , नानी , मौसा , मौसी और इनके तीन पीढ़ी के पूर्वज होते हैं, क्योंकि माँ का स्थान  परमात्मा से भी ऊंचा माना गया है अतः यदि माता के प्रति कोई गलत शब्द बोलता है,अथवा  माता के पक्ष को कोई कष्ट देता रहता है, तो इसके फलस्वरूप उसको नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं । इतना ही नहीं , इसके बाद भी कलह और कष्टों का दौर भी परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी चलता ही रहता है ।

2. पितृ ऋण:

पिता पक्ष के  लोगों जैसे बाबा, ताऊ, चाचा, दादा-दादी और इसके पूर्व की तीन पीढ़ी का श्राप हमारे जीवन को प्रभावित करता है । पिता हमें आकाश की तरह छत्र छाया देता है । हमारा जिंदगी भर पालन -पोषण करता है  और अंतिम समय तक हमारे सारे दुखों को खुद झेलता रहता है । पर आज  के इस भौतिक युग में पिता का सम्मान क्या नयी पीढ़ी कर रही है ? पितृ -भक्ति करना मनुष्य का धर्म है। इस धर्म का पालन न करने पर उनका श्राप नयी पीढ़ी को झेलना ही पड़ता है ।

3. देव ऋण :

माता -पिता प्रथम देवता हैं, जिसके कारण भगवान गणेश महान बने । इसके बाद हमारे इष्ट भगवान शंकर जी, दुर्गा माँ, भगवान विष्णु आदि आते हैं । जिनको हमारा कुल मानता आ रहा है । हमारे पूर्वज भी अपने अपने कुल देवताओं को मानते थे । लेकिन नयी पीढ़ी ने बिलकुल छोड़ दिया है । इसी कारण भगवान /कुलदेवी /कुलदेवता उन्हें नाना प्रकार के कष्ट /श्राप देकर उन्हें अपनी उपस्थिति का आभास कराते हैं ।

4. ऋषि ऋण :

जिस ऋषि के गोत्र में पैदा हुए, वंश वृद्धि की, उन ऋषियों का नाम अपने नाम के साथ जोड़ने में नयी पीढ़ी कतराती है । उनके ऋषि तर्पण आदि नहीं करती है । इस कारण उनके घरों में कोई मांगलिक कार्य नहीं होते हैं । इसलिए उनका श्राप पीढ़ी दर पीढ़ी प्राप्त होता रहता है ।

5. मनुष्य ऋण :

माता -पिता  के अतिरिक्त जिन अन्य मनुष्यों ने हमें प्यार दिया, दुलार दिया, हमारा ख्याल रखा, समय समय पर मदद की । गाय आदि पशुओं का दूध पिया । जिन अनेक मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों ने हमारी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मदद की, उनका ऋण भी हमारे ऊपर हो गया । लेकिन लोग आजकल गरीब, बेबस, लाचार लोगों की धन संपत्ति हरण करके अपने को ज्यादा गौरवान्वित महसूस करते हैं । इसी कारण देखने में आया है कि ऐसे लोगों का पूरा परिवार जीवन भर नहीं बस पाता है, वंशहीनता, संतानों का गलत संगति में पड़ जाना, परिवार के सदस्यों का आपस में सामंजस्य  न बन पाना , परिवार कि सदस्यों का किसी असाध्य रोग से ग्रस्त रहना इत्यादि दोष उस परिवार में उत्पन्न हो जाते हैं । ऐसे परिवार को पितृ दोष युक्त या शापित परिवार कहा जाता है ।

श्राद्ध अवश्य करे :

पितृपक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें अन्न-जल से संतुष्ट करेंगे; यही आशा लेकर वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं लेकिन जो लोग–पितर हैं ही कहां? –यह मानकर उचित तिथि पर जल व शाक से भी श्राद्ध नहीं करते हैं, उनके पितर दु:खी व निराश होकर शाप देकर अपने लोक वापिस लौट जाते हैं और बाध्य होकर श्राद्ध न करने वाले अपने सगे-सम्बधियों का रक्त चूसने लगते हैं। फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट-ही-कष्ट झेलना पड़ता है और मरने के बाद नरक में जाना पड़ता है
धार्मिक मान्यता के अनुसार, पूर्वजों की आत्मा की शांति और उनके तर्पण के निमित्त श्राद्ध किया जाता है। यहां श्राद्ध का अर्थ श्रद्धा पूर्वक अपने पितरों के प्रति सम्मान प्रकट करने से है। हिंदू धर्म में श्राद्ध का विशेष महत्व होता है। आइए जानते हैं श्राद्ध पक्ष से जुड़ी हर वो जरूरी बात जिसे आपको जानना चाहिए।

श्राद्ध किसे कहते हैं?

 श्राद्ध का अर्थ श्रद्धा पूर्वक अपने पितरों को प्रसन्न करने से है। सनातन मान्यता के अनुसार जो परिजन अपना देह त्यागकर चले गए हैं, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए सच्ची श्रद्धा के साथ जो तर्पण किया जाता है, उसे श्राद्ध कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के देवता यमराज श्राद्ध पक्ष में जीव को मुक्त कर देते हैं, ताकि वे स्वजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें।

कौन कहलाते हैं पितर

 जिस किसी के परिजन चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित हों, बच्चा हो या बुजुर्ग, स्त्री हो या पुरुष उनकी मृत्यु हो चुकी है उन्हें पितर कहा जाता है। पितृपक्ष में मृत्युलोक से पितर पृथ्वी पर आते है और अपने परिवार के लोगों को आशीर्वाद देते हैं। पितृपक्ष में पितरों की आत्मा की शांति के लिए उनको तर्पण किया जाता है। पितरों के प्रसन्न होने पर घर पर सुख शान्ति आती है।

कब बनता है पितृपक्ष का योग

हिंदू धर्म में पितृपक्ष का विशेष महत्व होता है। पितृपक्ष के 15 दिन पितरों को समर्पित होता है। शास्त्रों अनुसार श्राद्ध पक्ष भाद्रपक्ष की पूर्णिणा से आरम्भ होकर आश्विन मास की अमावस्या तक चलते हैं। भाद्रपद पूर्णिमा को उन्हीं का श्राद्ध किया जाता है जिनका निधन वर्ष की किसी भी पूर्णिमा को हुआ हो। शास्त्रों मे कहा गया है कि साल के किसी भी पक्ष में, जिस तिथि को परिजन का देहांत हुआ हो उनका श्राद्ध कर्म उसी तिथि को करना चाहिए।

जब याद ना हो श्राद्ध की तिथि

पितृपक्ष में पूर्वजों का स्मरण और उनकी पूजा करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। जिस तिथि पर हमारे परिजनों की मृत्यु होती है उसे श्राद्ध की तिथि कहते हैं। बहुत से लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि याद नहीं रहती ऐसी स्थिति में शास्त्रों में इसका भी निवारण बताया गया है।
 शास्त्रों के अनुसार यदि किसी को अपने पितरों के देहावसान की तिथि मालूम नहीं है तो ऐसी स्थिति में आश्विन अमावस्या को तर्पण किया जा सकता है। इसलिये इस अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या कहा जाता है। इसके अलावा यदि किसी की अकाल मृत्यु हुई हो तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को किया जाता है। ऐसे ही पिता का श्राद्ध अष्टमी और माता का श्राद्ध नवमी तिथि को करने की मान्यता है।

क्या है पौराणिक कथा

कहा जाता है कि जब महाभारत के युद्ध में दानवीर कर्ण का निधन हो गया और उनकी आत्मा स्वर्ग पहुंच गई, तो उन्हें नियमित भोजन की बजाय खाने के लिए सोना और गहने दिए गए। इस बात से निराश होकर कर्ण की आत्मा ने इंद्र देव से इसका कारण पूछा। तब इंद्र ने कर्ण को बताया कि आपने अपने पूरे जीवन में सोने के आभूषणों को दूसरों को दान किया लेकिन कभी भी अपने पूर्वजों को नहीं दिया।
तब कर्ण ने उत्तर दिया कि वह अपने पूर्वजों के बारे में नहीं जानता है और उसे सुनने के बाद, भगवान इंद्र ने उसे 15 दिनों की अवधि के लिए पृथ्वी पर वापस जाने की अनुमति दी ताकि वह अपने पूर्वजों को भोजन दान कर सके। इसी 15 दिन की अवधि को पितृ पक्ष के रूप में जाना जाता है।

श्राद्ध की वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं?

श्राद्ध का अर्थ : – श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम्।
‘श्राद्ध’ का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किए गए पदार्थ-दान (हविष्यान्न, तिल, कुश, जल के दान) का नाम ही श्राद्ध है। श्राद्धकर्म पितृऋण चुकाने का सरल व सहज मार्ग है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरगण वर्षभर प्रसन्न रहते हैं।
श्राद्ध-कर्म से व्यक्ति केवल अपने सगे-सम्बन्धियों को ही नहीं, बल्कि ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सभी प्राणियों व जगत को तृप्त करता है। पितरों की पूजा को साक्षात् विष्णुपूजा ही माना गया है।
प्राय: कुछ लोग यह शंका करते हैं कि श्राद्ध में समर्पित की गईं वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती है? कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं–कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिण्ड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है? इस शंका का स्कन्दपुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है।
एक बार राजा करन्धम ने महायोगी महाकाल से पूछा–’मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिण्डदान किया जाता है तो वह जल, पिण्ड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?’
भगवान महाकाल ने बताया कि–विश्वनियन्ता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरुप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गयी स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं।
वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। पांच तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति–इन नौ तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं। इसलिए देवता और पितर गन्ध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्दतत्व से रहते हैं और स्पर्शतत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वर देते हैं।

पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व

जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार-तत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।

किस रूप में पहुंचता है पितरों को आहार ?

नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वेदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं। यदि पितर देवयोनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें ‘अमृत’ होकर प्राप्त होता है। यदि गन्धर्व बन गए हैं तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है।
यदि पशुयोनि में हैं तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है। नागयोनि में वायुरूप से, यक्षयोनि में पानरूप से, राक्षसयोनि में आमिषरूप में, दानवयोनि में मांसरूप में, प्रेतयोनि में रुधिररूप में और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्तिकारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता हैं।
जिस प्रकार बछड़ा झुण्ड में अपनी मां को ढूंढ़ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मन्त्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं। जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।

श्रीराम द्वारा श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों में सीताजी ने किए राजा दशरथ व पितरों के दर्शन

श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मण पितरों के प्रतिनिधिरूप होते हैं। एक बार पुष्कर में श्रीरामजी अपने पिता दशरथजी का श्राद्ध कर रहे थे। रामजी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गयीं। ब्राह्मण-भोजन के बाद रामजी ने जब सीताजी से इसका कारण पूछा तो वे बोलीं–
‘मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे आपको बताती हूँ। आपने जब नाम-गोत्र का उच्चारणकर अपने पिता-दादा आदि का आवाहन किया तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छायारूप में सटकर उपस्थित थे। ब्राह्मणों के शरीर में मुझे अपने श्वसुर आदि पितृगण दिखाई दिए फिर भला मैं मर्यादा का उल्लंघनकर वहां कैसे खड़ी रहती; इसलिए मैं ओट में हो गई।’

तुलसी की महिमा श्राद्ध में

तुलसी से पिण्डार्चन किए जाने पर पितरगण प्रलयपर्यन्त तृप्त रहते हैं। तुलसी की गंध से प्रसन्न होकर गरुड़ पर आरुढ़ होकर विष्णुलोक चले जाते हैं।

पितर प्रसन्न तो सभी देवता प्रसन्न

श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है और वंशवृद्धि के लिए तो पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है—
आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।
पशुन् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।। (यमस्मृति, श्राद्धप्रकाश)
यमराज जी का कहना है कि–
  • श्राद्ध-कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।
  • पितरगण मनुष्य को पुत्र प्रदान कर वंश का विस्तार करते हैं।
  • परिवार में धन-धान्य का अंबार लगा देते हैं।
  • श्राद्ध-कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।
  • पितरगण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।
  • श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाले के परिवार में कोई क्लेश नहीं रहता वरन् वह समस्त जगत को तृप्त कर देता है।

श्राद्ध न करने से होने वाली हानि?

 शास्त्रों में श्राद्ध न करने से होने वाली हानियों का जो वर्णन किया गया है, उन्हें जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शास्त्रों में मृत व्यक्ति के दाहकर्म के पहले ही पिण्ड-पानी के रूप में खाने-पीने की व्यवस्था कर दी गयी है। यह तो मृत व्यक्ति की इस महायात्रा में रास्ते के भोजन-पानी की बात हुई। परलोक पहुंचने पर भी उसके लिए वहां न अन्न होता है और न पानी। यदि सगे-सम्बन्धी भी अन्न-जल न दें तो भूख-प्यास से उसे वहां बहुत ही भयंकर दु:ख होता है।
 आश्विनमास के पितृपक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें अन्न-जल से संतुष्ट करेंगे; यही आशा लेकर वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं लेकिन जो लोग–पितर हैं ही कहां?–यह मानकर उचित तिथि पर जल व शाक से भी श्राद्ध नहीं करते हैं, उनके पितर दु:खी व निराश होकर शाप देकर अपने लोक वापिस लौट जाते हैं और बाध्य होकर श्राद्ध न करने वाले अपने सगे-सम्बधियों का रक्त चूसने लगते हैं। फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट-ही-कष्ट झेलना पड़ता है और मरने के बाद नरक में जाना पड़ता है।
 मार्कण्डेयपुराण में बताया गया है कि जिस कुल में श्राद्ध नहीं होता है, उसमें दीर्घायु, नीरोग व वीर संतान जन्म नहीं लेती है और परिवार में कभी मंगल नहीं होता है।

धन के अभाव में श्राद्ध कैसे करें?

 ब्रह्मपुराण में बताया गया है कि धन के अभाव में श्रद्धापूर्वक केवल शाक से भी श्राद्ध किया जा सकता है। यदि इतना भी न हो तो अपनी दोनों भुजाओं को उठाकर कह देना चाहिए कि मेरे पास श्राद्ध के लिए न धन है और न ही कोई वस्तु। अत: मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ; वे मेरी भक्ति से ही तृप्त हों।
पितृपक्ष पितरों के लिए पर्व का समय है, अत: प्रत्येक गृहस्थ को अपनी शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार पितरों के निमित्त श्राद्ध व तर्पण अवश्य करना चाहिए।

श्राद्ध कर्म कब करें

हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार जिस तिथि को जिसके पूर्वज गमन करते हैं, उसी तिथि को उनका श्राद्ध करना चाहिए। इस पक्ष में जो लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं, उनके समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं।
जिन लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती, उनके लिए पितृ पक्ष में कुछ विशेष तिथियां भी निर्धारित की गई हैं, जिस दिन वे पितरों के निमित्त श्राद्ध कर सकते हैं।

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा:

इस तिथि को नाना-नानी के श्राद्ध के लिए सही बताया गया है। इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। यदि नाना-नानी के परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उनकी मृत्युतिथि याद न हो, तो आप इस दिन उनका श्राद्ध कर सकते हैं।

पंचमी:

जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई हो, उनका श्राद्ध इस तिथि को किया जाना चाहिए।

नवमी:

सौभाग्यवती यानि पति के रहते ही जिनकी मृत्यु हो गई हो, उन स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। यह तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम मानी गई है। इसलिए इसे मातृनवमी भी कहते हैं। मान्यता है कि इस तिथि पर श्राद्ध कर्म करने से कुल की सभी दिवंगत महिलाओं का श्राद्ध हो जाता है।

एकादशी और द्वादशी:

एकादशी में वैष्णव संन्यासी का श्राद्ध करते हैं। अर्थात् इस तिथि को उन लोगों का श्राद्ध किए जाने का विधान है, जिन्होंने संन्यास लिया हो।

चतुर्दशी:

इस तिथि में शस्त्र, आत्म-हत्या, विष और दुर्घटना यानि जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो उनका श्राद्ध किया जाता है जबकि बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को करने के लिए कहा गया है।

सर्वपितृमोक्ष अमावस्या:

किसी कारण से पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर पितरों का श्राद्ध करने से चूक गए हैं या पितरों की तिथि याद नहीं है, तो इस तिथि पर सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है। शास्त्र अनुसार, इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है। यही नहीं जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो, उनका भी अमावस्या तिथि को ही श्राद्ध करना चाहिए। बाकी तो जिनकी जो तिथि हो, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि पर श्राद्ध करना चाहिए। यही उचित भी है।

बच्चों का श्राद्ध किया जाए या नहीं

बच्चों के श्राद्ध के संबंध में शास्त्रों में उनकी आयु के आधार पर व्यवस्थाएं दी गई है संक्षेप में यह व्यवस्थाएं इस प्रकार हैं

दो वर्ष या उससे कम आयु के बच्चे की वार्षिक तिथि और श्रद्धा नहीं किया जाता

यदि मृतक 2 से 6 वर्ष तक की आयु का है तो भी उसकी श्रद्धा नहीं किया जाता है उसका केवल मृत्यु के 10 दिन के अंदर 16 पिंडों का दान (मालिनषोडशी) किया जाता है

6 वर्ष से अधिकआयु में मृत्यु होने परश्रद्धा की संपूर्ण प्रक्रिया की जाती है

कन्या की दो से 10 वर्ष की अवधि में मृत्यु होने की स्थिति में उसका श्रद्धा नहीं किया जाता है केवल मालिनषोडशी की क्रिया की जाती है

अविवाहित कन्या की 10 वर्ष से अधिक आयु होने पर मालिनषोडशी,एकादशाह, सपिंडन आदि की क्रियाएं की जाती है

विवाहित कन्या की मृत्यु पर माता-पिता के घर में श्राद्ध आदि की क्रियाएं नहीं की जाती है 

 

Ekadashi Katha Today परिवर्तिनी (पदमा) एकादशी व्रत कथा

Ekadashi Vrat Katha   एकादशी व्रत कथा

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सभी मित्रों को राम-राम जैसा कि आप सभी जानते हैं आज पदमा एकादशी है | जिसे परिवर्तनी एकादशी भी कहते हैं आइए कथा का महत्व जानते हैं |

युधिष्ठिर ने भगवान से पूछा- केशव ! भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में जो एकादशी होती है उसका क्या नाम, कौन देवता और कैसी विधि है यह बतलाइए

भगवान श्री कृष्ण बोले – राजन ! इस विषय में मैं तुम्हें आश्चर्यजनक कथा सुनाता हूं जिसे ब्रह्मा ने महात्मा नारद से कहा था|

नारद जी ने पूछा – चतुर्मुख! आपको नमस्कार है मैं भगवान विष्णु की आराधना के लिएआपके मुख से यह सुनना चाहता हूं कि भाद्रपद मासके शुक्ल पक्ष में कौन सी एकादशी होती है

ब्रह्माने कहा – मुनिश्रेष्ठ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है| क्यों ना हो, वैष्णव जो ठहरे | भादो के शुक्ल पक्ष की एकादशी पदमा नाम से विख्यात है |उस दिन भगवान ऋषिकेश की पूजा होती है यह उत्तम व्रत अवश्य करने योग्य है|

सूर्यवंश में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सत्यप्रतिज्ञ और प्रतापी राजा हुए | वे प्रजा का अपने औरस पुत्रों की भांति धरमपूर्वक पालन किया करते थे | उनके राज्य में अकाल नहीं पड़ता था मानसिक चिंता नहीं सताती थी और व्याधियों का प्रकोप भी नहीं होता था | उनकी प्रजा निर्भय तथा धन-धान्य से समृद्ध थी| महाराज की कोष में केवल न्यायोपार्जित धनका संग्रह होता था | उनके राज्य में समस्त वर्णों के और आश्रमों के लोग अपने-अपने धर्म में लगे रहते थे | मांधाता के राज्य की भूमि कामधेनु के समान फल देने वाली थी| उनके राज्य करते समय प्रजा को बहुत सुख प्राप्त होता था | एक समय की बात है किसी कर्म का फल भोग प्राप्त होने पर राजा के राज्य में 3 वर्षों तक वर्षा नहीं हुई | इससे उनकी प्रजा भूख से पीड़ित होने लगी, तब संपूर्ण प्रजा ने महाराज के पास आकर इस प्रकार कहा-

प्रजा बोली -नृप श्रेष्ठ! आपको प्रजा की बात सुननी चाहिए | पुराणों में मनीषी पुरुषों ने जल को “नारा” कहा है | वह नारा ही भगवान का अयन – निवास स्थान है ! इसलिए वे नारायण कहलाते हैं | नारायण स्वरूप भगवान विष्णु सर्वत्र व्यापक रूप में विराजमान है |वे ही मेघ स्वरूप होकर वर्षा करते हैं, वर्षा से अन्य पैदा होता है और अन्न से प्रजा जीवन धारण करती है | 

श्रेष्ठ! इस समय अन्न  के बिना प्रजा का नाश हो रहा है अतः ऐसा कोई उपाय कीजिए जिससे हमारे योगक्षेम का निर्वाह हो | 

राजा ने कहा आप लोगों का कथन सत्य है क्योंकि अन्न को ब्रह्म कहा गया है | अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं और अन्न से ही जगत जीवन धारण करता है| लोक में बहुधा ऐसा सुना जाता है तथा पुराण में भी बहुत विस्तार के साथ ऐसा वर्णन है कि राजाओं के अत्याचार से प्रजा को पीड़ा होती है ! किंतु जब मैं बुद्धि से विचार करता हूं तो मुझे अपना किया हुआ कोई भी अपराध नहीं दिखाई देता | फिर भी मैं प्रजा के हित के लिए पूर्ण प्रयत्न करूंगा|

ऐसा निश्चय  करके राजा मांधाता कुछ व्यक्तियों को साथ ले विधाता को प्रणाम करके सघन वन की ओर चल दिए वहां जाकर मुख्य- मुख्य मुनियों और तपस्वियों का  आश्रमों में  दर्शन प्राप्त हुआ उन पर दृष्टि पढ़ते ही राजा हर्ष में भरकर अपने  रथ से उतर पड़े  और इंद्रियों को वश में रखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मुनिके चरणों में प्रणाम किया मुनि ने भी स्वस्ति कहकर राजा का अभिनंदन किया और उनके राज्यके सातों अंगों की कुशल पूछी |राजा नेअपनी कुशल बताकर मुनिके स्वास्थ्य का समाचार पूछ लिया | मुनि ने राजा को आसान और जल दिया | उन्हें ग्रहण करके जब   वे  मुनि के समीप बैठेतो उन्होंने उनके आगमन का कारण पूछा |

तब राजा ने कहा – भगवन ! मैं धर्मानुकूलप्रणाली से पृथ्वी का पालन कर रहा था | फिर भी मेरे राज्य में वर्षा का अभाव हो गया इसका क्या कारण है , इस बात को मैं नहीं जानता|

ऋषि बोले – राजन! यह सब युगों में उत्तम सतयुग है | इसमें सब लोग परमात्मा की चिंतन में लगे रहते हैं तथा इस समय धर्म अपने चारों चरणों से युक्त होता है | इस युग में केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं दूसरे लोग नहीं | किंतु महाराज!   तुम्हारे राज्य में यह शुद्ध तपस्या करता है ; इसी कारण में मेघ पानी नहीं बरसते हैं | तुम इसके प्रतिकार का यत्न करो ; जिससे यह अनावृष्टि का दोस्त शांत हो जाए |

राजा ने कहा – मुनिवर! एक तो यह तपस्या में लगा है, दूसरा  निरअपराध है; अतः में इसका अनिष्ट नहीं करूंगा | आप उक्त दोष को शांत करने वाले किसी धर्म का उपदेश कीजिए

ऋषि बोले- राजन! यदि ऐसी बात है तो एकादशी का व्रत करो | भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष में जो “पदमा” नाम से विख्यात एकादशी होती है उसके व्रत के प्रभाव से निश्चय उत्तम वृष्टि होगी| नरेश! तुम अपनी प्रजा और परिजनों के साथ इसका व्रत करो |

ऋषि का यह वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आए उन्होंने चारों वर्णों की समस्त प्रजाजनों के साथ के भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की “पदमा” एकादशी का व्रत किया | इस प्रकार व्रत करने परमेघ पानी बरसने लगे | पृथ्वी जल से आप्लावित हो गई और हरी भरी खेती से सुशोभित होने लगी | उसे व्रत के प्रभाव से सब सुखी हो गए|

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं – राजन इस कारण इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए ‘पद्माएकादशी’ के दिन जल से भरे हुए घड़े को वस्त्र से ढककर दही और चावल के साथ ब्राह्मण को दान देना चाहिए,साथ ही छाता और जूता भी देने चाहिए | दान करते समय निम्नांकितमंत्र का उच्चारण करें –

नमो नमस्ते गोविंद बुद्धश्रवणसंज्ञक||

अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव|| 

भुक्तिमुक्ति प्रदश्चैव लोकानाम्  सुखदायक:||

   

(बुधवार और श्रवण नक्षत्र के योग से युक्त द्वादशी के दिन)

 बुद्ध श्रवण नाम धारण करने वाले भगवान गोविंद! आपको नमस्कार है, नमस्कार है ! मेरी पापराशिका नाश करके आप मुझे सब प्रकार के सुख प्रदान करें | आप पूर्ण आत्माजनों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले तथा सुखदायक हैं |

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राजन! इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है

ओम नमोभगवते वासुदेवाय नमः||
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Sanatan Dharma Logo सनातन धर्म का प्रतीक चिन्ह

सनातन धर्म: एक शाश्वत धर्म की अद्भुत विशेषताएं

स्वस्तिक: सर्वाधिक मान्यता प्राप्त प्रतीक

स्वस्तिक, जिसे अक्सर "स्व-स्ति-का" कहा जाता है, निर्विवाद रूप से सनातन धर्म (हिंदू धर्म) से जुड़े सबसे व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त प्रतीकों में से एक है। 
इसकी विशिष्ट उपस्थिति, जिसमें भुजाएँ दक्षिणावर्त और वामावर्त दोनों दिशाओं में बाहर की ओर फैली हुई हैं, ने दुनिया भर का ध्यान आकर्षित किया है।



अर्थ और महत्व:

सनातन धर्म के संदर्भ में स्वस्तिक का गहरा अर्थ है। इसका नाम दो संस्कृत शब्दों से लिया गया है: "सु" का अर्थ है "अच्छा" या "शुभ," और "अस्ति" का अर्थ 
है "होना।" इस प्रकार, स्वस्तिक की व्याख्या कल्याण, समृद्धि और शुभता के प्रतीक के रूप में की जा सकती है। यह सृजन, संरक्षण और विनाश के चक्र का 
प्रतीक है, जो हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान में एक मौलिक अवधारणा है।

इतिहास:

स्वस्तिक का इतिहास व्यापक है और हजारों साल पुराना है। इसकी जड़ें प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता में पाई जाती हैं, जहां इसका उपयोग मिट्टी के बर्तनों, कला 
और कलाकृतियों में एक सामान्य रूपांकन के रूप में किया जाता था। इस प्राचीन संदर्भ में, स्वस्तिक को सूर्य के प्रतीक के रूप में देखा जाता था, जिसकी 
भुजाएँ सूर्य की किरणों का प्रतिनिधित्व करती थीं।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, स्वस्तिक अपने प्रतीकवाद और अर्थ में विकसित होता रहा। इसने वैदिक ग्रंथों में अपना स्थान पाया, जहां यह विभिन्न देवताओं,
विशेष रूप से भगवान विष्णु से जुड़ा हुआ हो गया। इस संदर्भ में, यह ब्रह्मांड में स्थिरता और व्यवस्था लाने के लिए विष्णु की दिव्य शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है।



विभिन्न संस्कृतियों में उपयोग:

जबकि स्वस्तिक आमतौर पर सनातन धर्म से जुड़ा हुआ है, इसका उपयोग पूरे इतिहास में विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों में भी किया गया है। उदाहरण के लिए,
प्राचीन बौद्ध धर्म में, यह बुद्ध के नक्शेकदम का प्रतीक है और उनकी शिक्षाओं का प्रतीक माना जाता है। जैन धर्म में, यह अस्तित्व की चार अवस्थाओं में, 
जन्म, जीवन,मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र का प्रतिनिधित्व करता है।

स्वस्तिक का उपयोग भारतीय उपमहाद्वीप तक ही सीमित नहीं है। यह मूल अमेरिकी, यूरोपीय और यहां तक ​​कि अफ्रीकी संस्कृतियों में भी दिखाई देता है,
जो अक्सर अच्छे भाग्य, जीवन और सकारात्मक ऊर्जा के विचारों का प्रतीक है। 
निष्कर्षतः

 स्वस्तिक सनातन धर्म की स्थायी प्रकृति और मानव सभ्यता के विभिन्न पहलुओं पर इसके गहरे प्रभाव का एक प्रमाण है। अपनी सौंदर्यवादी अपील से परे, 
यह कल्याण, समृद्धि और शुभता के उन कालातीत सिद्धांतों की याद दिलाता है जिन्होंने सहस्राब्दियों से भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को
समृद्ध किया है।

स्वास्तिक की हर रेखा का है विशेष महत्व

स्वास्तिक में चार प्रकार की रेखाएं होती हैं, जिनका आकार एक समान होता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं। आम लोगों का मानना है कि यह रेखाएं चार दिशाओं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैं। इन चार रेखाओं की चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चारलोक और चार देवों यानी कि भगवान  ब्रह्मा, विष्णु, महेश (भगवान शिव) और गणेश से तुलना की गई है।

भगवान विष्णु की नाभि माना जाता है बिंदु

स्वास्तिक की चार रेखाओं को जोडऩे के बाद मध्य में बने बिंदु को भी विभिन्न मान्यताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है। मान्यता है कि यदि स्वास्तिक की चार रेखाओं को भगवान

ब्रह्मा के चार सिरों के समान माना गया है, तो फलस्वरूप मध्य में मौजूद बिंदु भगवान विष्णु की नाभि है, जिसमें से भगवान ब्रह्मा प्रकट होते हैं। इसके अलावा यह मध्य भाग संसार

के एक धुर से शुरू होने की ओर भी इशारा करता है।

बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं, स्वास्तिक भगवान

बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।

Hanuman Chalisa Hindi श्री हनुमान चालीसा।

सियावर रामचंद्र की जय

दोहा : · श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि बरनऊं रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारिबुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन कुमारबल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार

hanu ji

जय हनुमान ज्ञान गुन सागरजय कपीस तिहुं लोक उजागररामदूत अतुलित बल धामाअंजनि पुत्र पवनसुत नामा

महाबीर बिक्रम बजरंगीकुमति निवार सुमति के संगीकंचन बरन बिराज सुबेसाकानन कुंडल कुंचित केसाहाथ बज्र औ ध्वजा बिराजैकांधे मूंज जनेऊ साजैसंकर सुवन केसरीनंदनतेज प्रताप महा जग बन्दन
विद्यावान गुनी अति चातुरराम काज करिबे को आतुरप्रभु चरित्र सुनिबे को रसियाराम लखन सीता मन बसियासूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावाबिकट रूप धरि लंक जरावाभीम रूप धरि असुर संहारेरामचंद्र के काज संवारे
लाय सजीवन लखन जियाये
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श्रीरघुबीर हरषि उर लायेरघुपति कीन्ही बहुत बड़ाईतुम मम प्रिय भरतहि सम भाईसहस बदन तुम्हरो जस गावैंअस कहि श्रीपति कंठ लगावैंसनकादिक ब्रह्मादि मुनीसानारद सारद सहित अहीसा

जम कुबेर दिगपाल जहां तेकबि कोबिद कहि सके कहां तेतुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हाराम मिलाय राज पद दीन्हातुम्हरो मंत्र बिभीषन मानालंकेस्वर भए सब जग जानाजुग सहस्र जोजन पर भानूलील्यो ताहि मधुर फल जानू
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहींजलधि लांघि गये अचरज नाहींदुर्गम काज जगत के जेतेसुगम अनुग्रह तुम्हरे तेतेराम दुआरे तुम रखवारेहोत न आज्ञा बिनु पैसारेसब सुख लहै तुम्हारी सरनातुम रक्षक काहू को डर ना
आपन तेज सम्हारो आपैतीनों लोक हांक तें कांपैभूत पिसाच निकट नहिं आवैमहाबीर जब नाम सुनावैनासै रोग हरै सब पीराजपत निरंतर हनुमत बीरासंकट तें हनुमान छुड़ावैमन क्रम बचन ध्यान जो लावै
सब पर राम तपस्वी राजातिन के काज सकल तुम साजाऔर मनोरथ जो कोई लावैसोइ अमित जीवन फल पावैचारों जुग परताप तुम्हाराहै परसिद्ध जगत उजियारासाधु संत के तुम रखवारेअसुर निकंदन राम दुलारे
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाताअस बर दीन जानकी माताराम रसायन तुम्हरे पासासदा रहो रघुपति के दासातुम्हरे भजन राम को पावैजनम-जनम के दुख बिसरावै
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अन्तकाल रघुबर पुर जाईजहां जन्म हरि भक्त कहाई

और देवता चित्त न धरईहनुमत सेइ सर्ब सुख करईसंकट कटै मिटै सब पीराजो सुमिरै हनुमत बलबीराजै जै जै हनुमान गोसाईंकृपा करहु गुरुदेव की नाईंजो सत बार पाठ कर कोईछूटहि बंदि महा सुख होई
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसाहोय सिद्धि साखी गौरीसातुलसीदास सदा हरि चेराकीजै नाथ हृदय मंह डेराकीजै नाथ हृदय मंह डेरा
पवन तनय संकट हरन मंगल मूरति रूप
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप

Sanatan Dharma Kitna Purana Hai सनातन धर्म कितना पुराना है

Sanatan Dharma Kitna Purana Hai सनातन धर्म कितना पुराना है ?

सबसे प्राचीन सनातन धर्म के बारे में। सनातन धर्म, जिसे आमतौर पर हिंदू धर्म के नाम से जाना जाता है, दुनिया की सबसे पुरानी और सबसे जटिल विश्वास प्रणालियों में से एक है। इसकी उत्पत्ति हजारों वर्षों में देखी जा सकती है, और समय के साथ यह एक विविध और बहुआयामी धर्म के रूप में विकसित हुआ है। आइए सनातन धर्म के सार और इसके स्थायी महत्व का पता लगाएं।

सनातन धर्म, जिसका अनुवाद “अनन्त क्रम” या “अनन्त मार्ग” है, आध्यात्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपराओं की एक विस्तृत श्रृंखला को समाहित करता है। इसकी जड़ें वेदों के नाम से जाने जाने वाले प्राचीन ग्रंथों में पाई जा सकती हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि उनकी  रचना 1 अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार 124 वर्ष हो चुके हैं काशी विश्वनाथ पंचांग के अनुसार । ये ग्रंथ न केवल धार्मिक हैं बल्कि इनमें खगोल विज्ञान, गणित, चिकित्सा और अन्य सहित विभिन्न विषयों का ज्ञान भी शामिल है।

सनातन धर्म का हृदय उसकी आध्यात्मिक अवधारणाओं में निहित है। मूलभूत मान्यताओं में से एक कर्म का विचार है, कारण और प्रभाव का नियम जो किसी व्यक्ति के कार्यों और उनके परिणामों को इस जीवन और अगले जीवन दोनों में नियंत्रित करता है। जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म का चक्र, जिसे पुनर्जन्म के रूप में जाना जाता है, कर्म से जटिल रूप से जुड़ा हुआ है। यह चक्र तब तक जारी रहता है जब तक आत्मा आत्म-साक्षात्कार और परमात्मा के साथ एकता प्राप्त करके मोक्ष, या चक्र से मुक्ति प्राप्त नहीं कर लेती।

इस धर्म की विशेषता इसके विविध देवताओं और रीति-रिवाजों से है। यह अनेक देवी-देवताओं का उत्सव मनाता है, जिनमें से प्रत्येक जीवन और ब्रह्मांड के विभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव पवित्र त्रिमूर्ति हैं, जिनमें से प्रत्येक देवता क्रमशः सृजन, संरक्षण और विनाश के लिए जिम्मेदार हैं। भक्त आशीर्वाद, सुरक्षा और ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनुष्ठानों, प्रार्थनाओं और समारोहों में संलग्न होते हैं।

दार्शनिक दृष्टि से सनातन धर्म ने अनेक विचारधाराओं को जन्म दिया है। दर्शन के छह शास्त्रीय विद्यालय, जिनमें न्याय (तर्क), वैशेषिक (परमाणुवाद), सांख्य (गणना), योग (अनुशासन), मीमांसा (अनुष्ठान व्याख्या), और वेदांत (वेदों का अंत) शामिल हैं, जीवन पर अलग-अलग दृष्टिकोण पेश करते हैं। ब्रह्मांड, और वास्तविकता की प्रकृति। इन दर्शनों ने हिंदू बौद्धिक परंपराओं की समृद्ध परंपरा में योगदान दिया है।

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सनातन धर्म के अभिन्न अंग योग और ध्यान ने अपने शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभों के लिए वैश्विक मान्यता प्राप्त की है। प्राचीन ऋषि पतंजलि के योग सूत्र आत्म-अनुशासन, एकाग्रता और आत्म-जागरूकता पैदा करने वाली प्रथाओं के माध्यम से आध्यात्मिक प्राप्ति का मार्ग बताते हैं। योग, अपने विभिन्न रूपों में, व्यक्तियों के लिए अपने आंतरिक स्व से जुड़ने और तेजी से भागती दुनिया में संतुलन खोजने का एक तरीका बन गया है।

 

सनातन धर्म का सांस्कृतिक प्रभाव कला, संगीत, नृत्य और साहित्य तक फैला हुआ है। जटिल मंदिर वास्तुकला, भरतनाट्यम और ओडिसी जैसे शास्त्रीय नृत्य रूपों और महाकाव्यों रामायण और महाभारत ने भारत के सांस्कृतिक परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ी है। दीवाली (रोशनी का त्योहार), होली (रंगों का त्योहार), और नवरात्रि (नौ रातें) जैसे जीवंत त्योहार, विभिन्न देवताओं और पौराणिक घटनाओं का जश्न मनाते हैं, जिससे हिंदुओं के बीच एकता और भक्ति की भावना को बढ़ावा मिलता है।

आधुनिक समय में सनातन धर्म के सामने चुनौतियाँ और अवसर दोनों हैं। जैसे-जैसे दुनिया अधिक परस्पर जुड़ी हुई है, हिंदू धर्म ने दुनिया के विभिन्न कोनों में अनुयायियों और अनुयायियों को प्राप्त किया है। हालाँकि, यह सामाजिक असमानता, धार्मिक संघर्ष और अपनी समृद्ध विरासत के संरक्षण के मुद्दों से भी जूझता है।

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निष्कर्षतः, सनातन धर्म, या हिंदू धर्म, दुनिया की सबसे पुरानी और सबसे स्थायी विश्वास प्रणालियों में से एक है। इसकी प्राचीन जड़ें, गहन दार्शनिक अंतर्दृष्टि, विविध आध्यात्मिक प्रथाएं और जीवंत सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां लाखों लोगों के दिल और दिमाग को मोहित करती रहती हैं। जैसे-जैसे मानवता विकसित हो रही है, सनातन धर्म का सार एक मार्गदर्शक प्रकाश बना हुआ है, जो उन लोगों को ज्ञान और सांत्वना प्रदान करता है जो इसकी गहराई का पता लगाना चाहते हैं।

सनातन धर्म : आइये जानते हैं सनातन धर्म के बारे में, जो अति प्राचीन,गोपनीय, रहयमयी है !

सनातन धर्म 

सनातन धर्म अपने समृद्ध इतिहास, विविध मान्यताओं और आध्यात्मिक मार्गों के साथ, जिसे हिंदू धर्म भी कहा जाता है, इस धर्म के शाश्वत सार का अन्वेषण करें। धर्म की अवधारणा से लेकर मोक्ष की खोज तक, इसके गहरे सिद्धांतों की खोज करें। उन प्राचीन प्रथाओं, पवित्र ग्रंथों और दार्शनिक शिक्षाओं का अन्वेषण करें जिन्होंने पीढ़ियों का मार्गदर्शन किया है। आइये जानते हैं सनातन धर्म के बारे में, इसकी बहुमुखी प्रकृति और चल रहे विकास में गोता लगाएँ, इसके शाश्वत ज्ञान में निहित रहते हुए आधुनिक चुनौतियों को अपनाएँ।”

 

सनातन धर्म : आइये जानते हैं सनातन धर्म के बारे में,
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           प्राचीन, गोपनीय और रहस्यमय

इसका परिचय मानव आध्यात्मिकता की टेपेस्ट्री में, कुछ सूत्र सनातन धर्म की तरह जटिल और रहस्यमय हैं। अक्सर हिंदू धर्म के रूप में संदर्भित, यह प्राचीन विश्वास प्रणाली अपने भीतर ज्ञान का भंडार, गोपनीयता का पर्दा और रहस्य की आभा रखती है जिसने सहस्राब्दियों से विद्वानों और साधकों को आकर्षित किया है।आइये जानते हैं सनातन धर्म के बारे में, इसकी प्राचीन उत्पत्ति की गहराइयों, इसके बारीकी से संरक्षित रहस्यों और इसके चारों ओर मौजूद रहस्य की हवा को उजागर करने के लिए एक यात्रा पर निकलें।

                                           प्राचीन उत्पत्ति सनातन धर्म दुनिया के सबसे पुराने निरंतर प्रचलित धर्मों में से एक है, जिसकी जड़ें हजारों साल पुरानी हैं। वेदों के कालातीत ज्ञान में निहित, प्राचीन ग्रंथों की रचना सदियों में हुई मानी जाती है, यह आध्यात्मिक दर्शन मान्यताओं, प्रथाओं और परंपराओं की एक विविध और बहुमुखी टेपेस्ट्री में विकसित हुआ है। वेद, जिन्हें अक्सर दैवीय रहस्योद्घाटन माना जाता है, न केवल आध्यात्मिक मामलों में अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, बल्कि खगोल विज्ञान, गणित, चिकित्सा और नैतिकता सहित ज्ञान की एक विस्तृत श्रृंखला को भी शामिल करते हैं। गोपनीय उपदेश सनातन धर्म के मूल में शिक्षाओं और प्रथाओं का एक संग्रह है जो गोपनीय माने जाते हैं और ईमानदार साधकों के लिए हैं। 

                                              ये शिक्षाएँ, जो अक्सर गुरु-शिष्य संबंधों के माध्यम से पारित की जाती हैं, मानव अस्तित्व के गहन पहलुओं, वास्तविकता की प्रकृति और आत्म-प्राप्ति के मार्ग पर प्रकाश डालती हैं। उपनिषद, दार्शनिक ग्रंथ जो वैदिक परंपरा से निकले हैं, स्वयं की प्रकृति (आत्मान) और परम वास्तविकता (ब्राह्मण) के साथ इसके संबंध जैसे विषयों पर प्रकाश डालते हैं। ये शिक्षाएँ केवल सैद्धांतिक अवधारणाएँ नहीं हैं बल्कि उन लोगों के लिए व्यावहारिक अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं जो अस्तित्व की गहरी परतों का पता लगाना चाहते हैं।

             रहस्यमय प्रतीकवाद सनातन धर्म प्रतीकवाद से परिपूर्ण है जो गहरे अर्थ रखता है। मंदिरों की शोभा बढ़ाने वाले जटिल पैटर्न से लेकर देवी-देवताओं की प्रतीकात्मकता से भरपूर कहानियों तक, इस विश्वास प्रणाली के हर पहलू में गहरी गहराई छिपी हुई है। देवता स्वयं ब्रह्मांडीय सिद्धांतों के अवतार हैं, जो सृजन, संरक्षण और परिवर्तन के पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

                                           उदाहरण के लिए, भगवान शिव का जटिल नृत्य सृजन और विनाश के सतत चक्र का प्रतीक है जो ब्रह्मांड को नियंत्रित करता है। अक्सर रूपक में लिपटे ये प्रतीक, चिंतनशील साधक को सतह के नीचे छिपे अर्थ की परतों का पता लगाने के लिए आमंत्रित करते हैं। मुक्ति के मार्ग सनातन धर्म के भीतर मुक्ति के मार्ग विविध हैं, जो व्यक्तियों के विविध आध्यात्मिक झुकावों को पूरा करते हैं। चाहे ज्ञान की खोज (ज्ञान योग), निःस्वार्थ कार्रवाई (कर्म योग), भक्ति (भक्ति योग), या ध्यान (ध्यान योग) के माध्यम से, साधकों को सांसारिकता से परे जाने और आत्म-प्राप्ति की स्थिति तक पहुंचने के लिए कई रास्ते पेश किए जाते हैं।

         

सनातन धर्म : आइये जानते हैं सनातन धर्म के बारे में,
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शिक्षाएँ आत्म-अनुशासन

आंतरिक शुद्धता और भौतिक इच्छाओं से वैराग्य के महत्व पर जोर देती हैं, जो सभी व्यक्ति की चेतना के विकास में योगदान करते हैं। आधुनिक समय में रहस्यवादी समकालीन दुनिया में, सनातन धर्म लगातार फल-फूल रहा है, फिर भी यह कई लोगों के लिए रहस्य में डूबा हुआ है। पीढ़ियों से चले आ रहे अनुष्ठान, प्रथाएं और दर्शन हमेशा बाहरी लोगों के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं होते हैं। हालाँकि, रहस्य की इस हवा ने ग लतफहमियों और गलत व्याख्याओं को भी जन्म दिया है। आइये जानते हैं सनातन धर्म के बारे में, जिसके शिक्षाओं के रहस्यों को उजागर करने और उन्हें वैश्विक समुदाय के लिए अधिक सुलभ बनाने के प्रयास चल रहे हैं। संगठन और शिक्षक इस अंतर को पाटने और सनातन धर्म द्वारा प्रदान किए जाने वाले गहन ज्ञान पर प्रकाश डालने के लिए काम कर रहे हैं।

निष्कर्ष

निष्कर्ष जैसे-जैसे हम सनातन धर्म की गहराई में उतरते हैं, हम खुद को एक ऐसे क्षेत्र से गुजरते हुए पाते हैं जो प्राचीन और शाश्वत दोनों है, गोपनीय है और केवल उन लोगों के लिए सुलभ है जो ईमानदारी से खोज करते हैं, और रहस्यमय लेकिन गहन ज्ञान से भरा हुआ है। इस परंपरा की शिक्षाएं जिज्ञासु और ईमानदार दोनों को समान रूप से आकर्षित करती हैं, उन्हें प्रतीकवाद की परतों को छीलने और भीतर छिपे आध्यात्मिक खजाने का पता लगाने के लिए आमंत्रित करती हैं। गहरे अर्थ की चाहत रखने वाली दुनिया में, सनातन धर्म प्राचीन ज्ञान के एक प्रतीक के रूप में खड़ा है, जो उन लोगों द्वारा खोजे जाने की प्रतीक्षा कर रहा है जो आत्म-खोज और प्राप्ति की यात्रा पर निकलने के इच्छुक हैं।

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